Book Title: Upmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Author(s): Siddharshi Gani, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
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उपसंहार
भो भव्याः प्रविहाय मोहललितं युष्माभिराकर्ण्यतामेकान्तेन हितं मदीयवचनं कृत्वा विशुद्ध मनः । राधावेधसमं कथञ्चिदतुलं लब्ध्वापि मानुष्यकं, हिंसा क्रोधवशानुगैरिदमहो जीवैः पुरा हारितम् ॥
हे भव्य प्राणियों ! आप सब का एकान्त हित हो इस दृष्टि से जो बात में कहता हूँ उसे आप मोह - विलास को छोड़कर, मन को विशुद्ध कर ध्यान पूर्वक सुनें । राधावेध-साधन के समान दुःसाध्य अतुलनीय मनुष्य जन्म को किसी प्रकार प्राप्त करके भी जो प्रारणी हिंसा और क्रोध के वश में पड़कर दुर्लभता से प्राप्त मनुष्य-भव को व्यर्थ खो देता है, पहले भी कई बार खो चुका है । अहो ! वह मनुष्यता का कुछ भी लाभ प्राप्त नहीं कर सका ।। १ ।।
श्रनादिसंसारमहा प्रपंचे, क्वचित्पुनः स्पशवंशेन मूढैः । अनन्तवारान् परमार्थशून्यैविनाशितं मानुषजन्म जीवैः ॥ २ ॥
१ ॥
इस अनादि संसार के विशाल प्रपंच में पड़कर, कई बार स्पर्शनेन्द्रिय के वशीभूत होकर श्रोर परमार्थ दृष्टि से शून्य बनकर इस मूढ जीव ने अनन्त बार मनुष्यता को खोया है ॥ २ ॥
एतन्निवेदितमिह प्रकटं ततो भोः ! तां स्पर्शकोपपरताऽपमतिं विहाय । शान्ताः कुरुध्वमधुना कुशलानुबन्धमह्नाय लंघयथ येन भवप्रपंचम् ॥ ३ ॥
उपरोक्त कथा में घटनानुसार स्पष्ट वरिंगत कथानक को ध्यान में रखकर स्पर्शनेन्द्रिय, क्रोध और हिंसा की बुद्धि को छोड़कर अब आप शान्त बनें और पुण्यबन्ध करें जिससे इस संसार के प्रपंच का शीघ्र ही लंघन कर सकें ।। ३ ।।
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इति उपमिति भव-प्रपंच कथा का स्पर्शनेन्द्रिय, क्रोध और हिंसा के फल का प्रतिपादक तीसरा प्रस्ताव समाप्त हुना ।
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