________________
२६८
उपमिति-भव-प्रपंच कथा हुए मैं वहाँ से विजयपुर जाने के लिये निकल पड़ा और उस तरफ जाने वाला कितना ही रास्ता पार कर लिया। धराधर के साथ लड़ाई : नन्दिवर्धन की मृत्यु
। इधर विजयपुर राज्य के राजा शिखरी के एक धराधर नामक पुत्र था। वैश्वानर और हिंसा ने मेरी भाँति उसे भी अपने वश में कर रखा था जिससे उसके पिता ने उसे देश निकाला दे रखा था । जंगल में भटकते हुए उस धराधर तरुण को मैंने देखा । मैंने उससे विजयपुर नगर का रास्ता पूछा, किन्तु उस समय उसके मन में अधिक व्याकुलता होने से उसने मेरी बात नहीं सुनी। मैंने सोचा कि तिरस्कृत बुद्धि से यह मेरी अवगणना कर रहा है। इस विचार के साथ ही मेरे शरीर में निवास करने वाले वैश्वानर और हिंसा उछल पड़े जिससे मैंने उसकी कमर से लटकी हुई कटार खींच ली। उसके शरीर में निवास करने वाले वैश्वानर एवं हिंसा भी सचेष्ट हो गये । फलस्वरूप उसने भी अपनी तलवार खींच ली। हमने एक ही साथ एक दूसरे पर घातक प्रहार किये जिससे दोनों के ही शरीर विदीर्ण हो गये।
उस समय हम दोनों के पास जो एकभववेद्या गुटिका थी वे एक साथ ही जीर्ण हो गई और भवितव्यता ने हम दोनों को नई गुटिकायें दे दी। छठे नरक में नन्दिवर्धन
इधर पापिष्ठनिवासा (नरक) नामक एक नगरी है जिसमें एक के ऊपर एक ऐसे सात पाटक (बस्तियाँ) हैं । इस नगर में मात्र पापिष्ठ नामक कुलपुत्र ही रहते हैं। भवितव्यता द्वारा दी गई गोली के प्रभाव से मुझे और धराधर को इस नगरी की तमःप्रभा नामक छठे पाटक (नरक) में ले जाया गया और वहाँ के निवासी कुलपुत्रों का रूप प्रदान कर हम दोनों को वहाँ स्थापित किया। वहाँ जाने के बाद हम दोनों में वैरानुबन्ध बहुत अधिक बढ गया। एक दूसरे पर अनेक प्रकार के घात-आघात करते हुए, अनेक विध यातना भोगते हुए हम २२ सागरोपम तक वहाँ विशाल दुःख-समुद्र में डूबे रहे । संसार-परिभ्रमण
बावीस सागरोपम का समय पूरा होने पर भवितव्यता ने हम दोनों को फिर एक नई गोली दी जिसके प्रभाव से वह हमें पंचाक्ष-निवास नगर में ले गई और हम दोनों को गर्भज सर्प का रूप प्राप्त हुआ। वहाँ भी पूर्व-भव के वैर के कारण हम दोनों में क्रोध-बन्ध जागृत हुआ और हम परस्पर युद्ध करने लगे।
__ इस प्रकार लड़ते-लड़ते हमारी यह गोली भी जीर्ण हो गई । फलतः भवितव्यता ने पुनः नयी गोली देकर हमें पापिष्ठनिवास नगर के धूमप्रभा नामक पांचवे पाटक (नरक) में उत्पन्न किया । वहाँ भी हम आपस में जमकर संघर्ष करते रहे । इस घोर महादुःख में हमारी १७ सागरोपम की आयु समाप्त हुई । वहाँ अनेक प्रकार की तीव्रतर पीड़ाओं का मुझे अनुभव करना पड़ा। * पृष्ठ २६८
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org