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उपमिति-भव-प्रपंच कथा
अनन्त बाह्य कुटुम्ब का सम्बन्ध
अरिदमन-भगवन् ! आपने प्रतिपादित किया कि प्रथम दोनों अन्तरंग कुटुम्ब अनादि संसार में सर्वदा अविच्छिन्न प्रवाह वाले हैं और तृतीय बाह्य कुटुम्ब की उत्पत्ति और विनाश समय-समय पर होता रहता है, तब तो यह तीसरा कुटुम्ब प्रत्येक भव में नया-नया होता होगा ? [२५-२६]
विवेकाचार्य-राजन् ! यह बाह्य कुटुम्ब तो प्राणी के प्रत्येक भव में नया ही होता है । [२७]
अरिदमन-महाराज ! यदि ऐसा है, तब तो इस अनादि संसार में प्राणो ने अभी तक अनन्तों कुटुम्ब प्राप्त करके छोड़ दिये होंगे ? [२८]
विवेकाचार्य-राजन् ! जैसा आप कह रहे हैं वैसा ही है । इस प्राणी ने अनन्त बाह्य कुटुम्ब किये और छोड़ दिये, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है । इस संसार में भटकने वाले सभी तपस्वी जीव पथिक (यात्री) जैसे हैं । यात्री जैसे नयेनये वासस्थानों में नये-नये यात्रियों से मिलता है और फिर उन्हें छोड़ देता है वैसे ही प्रत्येक भव में प्राणी नये-नये शरीरों में प्रवेश कर नये-नये कुटुम्बा के साथ सम्बन्ध जोड़ता है और फिर उन्हें छोड़कर अन्य-अन्य शरीरों को धारण कर अन्य-अन्य कुटुम्बों से सम्बन्धित होता है। [२६-३०]
अरिदमन-भगवन् ! यदि ऐसा है तब तो इस मानव भव में तृतीय कुटुम्ब से स्नेह सम्बन्ध रखना महामोह को बढावा देना मात्र है ? * [३१]
विवेकाचार्य-राजन् ! तुमने सच्ची बात जान ली है। महामोह के बिना कौन समझदार व्यक्ति इस प्रकार की चेष्टा करेगा ? [३२]
___ अरिदमन-स्वामिन् ! एक प्रश्न और है । यदि कोई प्राणी यह निश्चय न कर सके कि उसमें अधम अन्तरंग कुटुम्ब को मार भगाने की शक्ति है या नहीं ?
और वह अधम कुटुम्ब के नाश में समर्थन न हो सके, फिर भी यदि वह तीसरे बाह्य कुटुम्ब का त्याग करे तो क्या फल प्राप्त होगा? श्रीमान् द्वारा निर्दिष्ट मुक्ति-लाभ हो सकता है या नहीं ? कृपया विवेचन करें। [३३-३४]
विवेकाचार्य-राजन् ! जो प्राणी अधम कुटुम्ब का नाश करने में समर्थ नहीं है वह यदि बाह्य कुटुम्ब का त्याग कर भी दें तो वह केवल आत्म-विडम्बना मात्र ही है। बाह्य कुटुम्ब का त्याग कर जो प्राणी निराकुल होकर अधम कुटुम्ब को मार भगा सके उसी का बाह्य कुटुम्ब त्याग सफल है, अन्यथा उसका त्याग निष्फल है, यह ध्यान रखें। [३५-३६]
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