Book Title: Upmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Author(s): Siddharshi Gani, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
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प्रस्ताव ३ : भव-प्रपञ्च और मनुष्य-भव को दुर्लभता ३८७ का इन्द्रत्व अपनी सम्पूर्ण ऋद्धि के साथ सहलता से प्राप्त हो सकता है, किन्तु जिनोक्त धर्म इतनी सरलता से प्राप्त नहीं हो सकता। हे राजन् ! राज्य-सुख, राज्यप्राप्ति, देवभोग या इन्द्रत्व ये सब तो संसार-सुख के कारण हैं जब कि मुनीन्द्रोक्त विशुद्ध धर्म तो मोक्ष सुख की प्राप्ति का कारण है। कांच और चिन्तामरिण रत्न के गुणों में जितना अन्तर हैं उतना ही संसार-सुख और मोक्ष-सुख में अन्तर है। वस्तुतः सद्धर्म की प्राप्ति इस संसार में अति दुर्लभ है। अतएव हे राजन् ! जो लोग इस धर्म-प्राप्ति के महत्व को समझते हैं वे संसार की किसी भी वस्तु के साथ उसकी तुलना कैसे कर सकते हैं ? इस कारण से हे राजन् ! इस संसार के विस्तार को किसी प्रकार पार कर, राधावेध के समान दुःसाध्य मनुष्य भव को प्राप्त कर और संसार एवं कर्म का नाश करने वाले जिन शासन को प्राप्त करके भी जो मूढ मानस वाले हिंसा, क्रोध आदि पापों में रागयुक्त होते हैं वे सर्वोत्तम चिन्तामणि रत्न को छोड़कर कांच को ग्रहण करते हैं, गोशीर्ष चन्दन को जलाकर उसके कोयले का व्यापार करते हैं, महासमुद्र में लोहे के लिये नौका को विनष्ट करते हैं, उत्तम वैडूर्य रत्न में पिरोए धागे को प्राप्त करने के लिये रत्न को तोड़ देते हैं और कील के लिये सर्वोत्तम काष्ठ पात्र (नाव) को जला देते हैं । मोहदोष से इमली की छछ को रत्न-पात्र में पकाते हैं, आक के फूल के लिये सोने के हल से जमीन जोतकर उसमें आकड़े के बीज बोते हैं और ये मूर्ख कपूर के टुकड़ों को फेंक कोदरे का व्यापार करते हैं तथा मन में गौरव का अनुभव करते हैं। ऐसा मानने का कारण यह है कि जिन प्राणियों के चित्त में हिंसा, क्रोध आदि पापों पर आसक्ति होती है उनसे जिनेन्द्रोक्त सद्धर्म दूर से दूर ही होता जाता है । जिस प्राणी का मन पाप में प्रोतप्रोत रहता है तथा सद्धर्म-रहित होता है वह मोक्षमार्ग के एक अंश के साथ भी नहीं जुड़ सकता । अतः ऐसा प्राणी संसार की प्रपंच विचित्रता
और सद्धर्म की दुर्लभता को जानते हुए भी मोहान्ध होकर इस महा भयंकर संसार-समुद्र में सम्पूर्ण रूप से डूब जाता है और अनेक प्रकार की पीड़ा को भोगता है। परिणाम स्वरूप उसका ज्ञान बिल्कुल व्यर्थ हो जाता है, जैसा कि इस नन्दिवर्धन का हुआ है। [१-१७] नन्दिवर्धन की बोध-दुर्लभता
अरिदमन-भगवन् ! आपने भव-प्रपंच को इतने विस्तार से सुनाया जिसे इस नन्दिवर्धन ने भी सुना हैं, इसने क्रोध और हिंसा के कटु परिणाम भी स्वयं अनुभव किये है । तो क्या अब उसे कुछ बोध प्राप्त होगा या नहीं ? कुछ जागृति आयेगी या नहीं ?
विवेकाचार्य-राजन् ! इसे किसी प्रकार का प्रतिबोध तो नहीं हुआ है, पर इस प्रकार की बातों से उल्टे इसके मन में अधिक उद्वेग उत्पन्न हो रहा है।
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