Book Title: Upmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Author(s): Siddharshi Gani, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
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प्रस्ताव ३ : तीन कुटुम्ब
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विवेकाचार्य -- राजन् ! इस संसार में प्रत्येक प्रारणी के तीन-तीन कुटुम्ब होते हैं । वे इस प्रकार हैं- प्रथम कुटुम्ब में क्षान्ति, प्रार्जव, मार्दव, लोभ-त्याग, ज्ञान, दर्शन, वीर्य, सुख, सत्य, शौच, तप और संतोष आदि कुटुम्बीजन (घर के मनुष्य) होते हैं । दूसरे कुटुम्ब में क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, मोह, अज्ञान, शोक, भय, अविरति आदि कुटुम्बीजन (बान्धव) होते हैं। तीसरा यह शरीर, इसको उत्पन्न करने वाले माता-पिता और भाई-बहिन श्रादि अन्य कुटुम्बीजन होते हैं, प्रत्येक प्राणी के इन तीन कुटुम्बों द्वारा असंख्य स्वजन सम्बन्धी होते हैं ।
इनमें जो क्षान्ति, मार्दव आदि का प्रथम कुटुम्ब कहा गया है यह प्राणी का स्वाभाविक कटुम्ब है जो अनादि काल से उसके साथ रहा हुआ है, जिसका कभी अन्त नहीं होता और जो प्राणी का हित करने में सदा तत्पर रहता है । यह कभी छुप जाता है और कभी प्रकट हो जाता है यह उसका स्वभाव है । यह अन्तरंग में रहता है और प्राणी को मोक्ष प्राप्ति करा सके ऐसा समर्थवान है । इसका कारण यह है कि वह अपने स्वभाव से ही प्रारणी को उसके स्वस्थान से उच्चता की ओर ले जाता है ।
इसके पश्चात् क्रोध, मान आदि को प्रारणी का दूसरा कुटुम्ब कहा गया है । यह कुटुम्ब अस्वाभाविक है, पर दुर्भाग्य से वस्तु स्वभाव को न समझने वाले अधिकांश प्राणी उसे ही अपना स्वाभाविक कुटुम्ब मानकर उससे ही प्रगाढ प्रेम भाव रखते हैं । इस द्वितीय प्रकार के कुटुम्ब का सम्बन्ध अभव्य जीवों के साथ अनादि काल से है और इस सम्बन्ध का कदापि अन्त नहीं होता अर्थात् अन्त रहित है । कुछ भव्य प्राणियों का इसके साथ सम्बन्ध अनादि काल से है किन्तु उसका अन्त निकट भविष्य में हो ऐसे स्वभाव वाला होता है । यह कुटुम्ब अपवाद - रहित प्राणी का एकान्त अहित करने वाला होता है । प्रथम कुटुम्ब की भाँति यह भी कभी छुप जाता है और कभी प्रकट हो जाता है । यह भी प्रारणी के अन्तरंग में निवास करता है । प्राणियों को अधिक से अधिक संसार वृद्धि का लाभ करवा कर संसार को बढ़ाना इस कुटुम्ब का धर्म है, क्योंकि प्राणी को स्वस्थान से नीचे गिराना, उसे दुर्गुणों के प्रति प्रेरित करना इसका स्वभाव है ।
इसके अतिरिक्त जो तृतीय कुटुम्ब का ऊपर वर्णन किया गया है, वह तो स्वरूप से ही अस्वाभाविक है । यह कुटुम्ब तो सादि और सान्त है । इसका प्रारम्भ अल्पकालिक होता है अतः इसका तो अस्तित्व भी पूर्णतया अस्थिर है । वह कभी भी किसी प्रकार स्थिर नहीं रह सकता । यह कुटुम्ब भव्य प्राणी को कभी हितकारी और कभी अहितकारी भी होता है । इसका धर्म उत्पत्ति और विनाश है और यह बहिरंग प्रदेश में ही प्रवर्तित होता है । भव्य प्राणी को यह संसार और मोक्ष दोनों में कारणभूत होता है, जबकि अभव्य प्राणी को मात्र संसार का कारण होता है । यह बाह्य कुटुम्ब बहुलता से क्रोध, मान आदि द्वितीय कुटुम्ब को परिपुष्ट
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