Book Title: Upmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Author(s): Siddharshi Gani, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
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प्रस्ताव ३ : मलय विलय उद्यान में विवेक केवलो विवेक केवली की देशना
हे भव्य प्राणियों! यह प्राणी इस संसार अटवी में निरन्तर भटकता रहता है । सर्वज्ञ भगवान् द्वारा बताये गये धर्म की प्राप्ति उसे बहुत ही कठिनाई से प्राप्त होती है। क्योंकि, ज्ञान-चक्षु से देखने पर पता लगता है कि यह संसार अनादि है, काल का प्रवाह भी अनादि है और जीव भी अनादि है । अनादि काल से भटकते प्राणियों को कभी भी सर्वज्ञ प्ररूपित धर्म की प्राप्ति नहीं होती, इसीलिये वे संसार में भटकते ही रहते हैं और उनके इस चक्कर का कभी अन्त नहीं होता। यदि कभी उन्हें जैन धर्म की प्राप्ति हो जाय तो उनका संसार में निवास भी कैसे हो सकता है ? अग्नि का मिलन होने पर तृण का अस्तित्व कैसे रह सकता है ? अतः हे राजन् ! यह निश्चित है कि इस प्राणी ने तीर्थंकर प्ररूपित धर्म को पहले कभी भी प्राप्त नहीं किया; इस कथन में तनिक भी सन्देह नहीं है । जैसे मत्स्य निरन्तर समुद्र में डोलते रहते हैं उसी प्रकार प्राणी इस अनन्त दुःखों से भरे हुए संसारसमुद्र में डोलता रहता है इसी प्रकार भटकते हुए जब उसका स्वकर्म और भव्यपन परिपक्व होता है और मनुष्यत्व आदि सामग्री की प्राप्ति होती है तथा समय की अनुकूलता होती है तब किसी भव्य जीव पर सकल कल्याणकारी अचिंत्य शक्तिधारी प्रभु की कृपा होता है । फलतः वह भव्य जीव बड़ी कठिनाई से भेदी जाने वाली ग्रंथि को भेद कर सकल क्लेशों का नाश करने वाला जिनेन्द्र भगवान् का तत्त्व-दर्शन प्राप्त करता है । उसके पश्चात् प्राणी तीर्थ कर प्ररूपित गृहस्थ-धर्म को अथवा सर्व दुःखों का निवास करने वाले श्रेष्ठ साधु-धर्म को स्वीकार करता है । इस प्रकार की सामग्री की प्राप्ति प्राणी को बहुत कठिनाई से प्राप्त होती है। इसीलिये राधावेधसंधान के समान धर्म की प्राप्ति को बहुत कठिन कहा गया है। अतः हे जीवों ! यदि तुम्हें शुद्ध धर्म की प्राप्ति हुई है तो उसका पालन करने का श्लाघ्यतम प्रयत्न करो और जितने अंश में धर्म की प्राप्ति न हुई हो उसे प्राप्त करने का प्रयत्न करो। [१२-२३]
राजा अरिदमन द्वारा नन्दिवर्धन सम्बन्धी प्रश्न
देशनानन्तर अरिदमन राजा ने विचार किया कि आचार्य भगवान् तो केवलज्ञानी होने से साक्षात् सूर्य हैं. इनसे तो कोई भी बात छिपी नहीं रह सकती, अतः मेरा जो संशय है उसके बारे में भगवान् से पूछ देख । अथवा आचार्यश्री केवलज्ञानी मेरे मन होने से मेरे मन के संशय या जिज्ञासा को वे स्वयं ही जानते हैं और मुझे जो बात जानने की इच्छा हुई है वह भी जानते हैं, अतः मुझ पर कृपाकर वे स्वयं ही सब कुछ बतायेंगे ।' राजा इस प्रकार सोच ही रहा था कि भव्य प्राग्गियों को विशुद्ध ज्ञान प्राप्त करवाने के उद्देश्य से राजा को सम्बोधित करते हुए केवली भगवान् ने कहा
आचार्य-राजन् ! आपके मन में जो सन्देह है उसे वाणी से पूछिये ।
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