Book Title: Upmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Author(s): Siddharshi Gani, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
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उपमिति-भव-प्रपंच कथा (वैश्वानर और हिंसा) मेरे सच्चे बन्धु हैं, सम्बन्धी हैं, मेरे परम देवता हैं, मेरा सच्चा हित करने वाले हैं और मेरा सब कुछ इन दोनों में ही समाहित है । मैंने यह भी निश्चय किया कि जो कोई भी प्राणी इन दोनों की प्रशंसा करता है वही प्राणी धन्य है, वही मेरा सच्चा बन्धु और अंतरंग मित्र है । जो मूर्ख प्राणी इन दोनों पर द्वेष रखता है वह मेरा शत्रु है, इसमें कोई संदेह नहीं है। महामोह के वशीभूत दुर्भाग्य से मैं उस समय यह नहीं जानता था कि यह सब लाभ मुझे मेरे मित्र पूण्योदय के योग से मिला है। इस प्रकार वैश्वानर और हिंसा में प्रगाढासवत होकर और पुण्योदय से पराङ मुख होकर (विपरीत दिशा में काम करने का सोचकर) मैं यथार्थ शुद्ध धर्म-मार्ग से अधिकाधिक दूर होता गया। [७-१७]
२७ : दयाकुमारी माता-पिता के सन्मान और नागरिकों के प्रेम के मध्य नगर प्रवेश कर पूरा दिन आनन्द और प्यारी हिंसा के विचार में पूरा किया। उसी रात सोने के पश्चात् जब थोड़ी रात बाकी थी, मेरे मन में फिर पाप प्रकट हुआ, अतः नियमानुसार माता-पिता को प्रभात वंदन किये बिना ही मैं जंगल में चला गया। पूरे दिन अनेक प्रकार के प्राणियों का शिकार किया और शाम को मैं अपने महल में वापस आया। [१५-१६] महाराज पद्म के विचार : विदुर की सूचना
सन्ध्या के समय पिताजी ने विदूर से पूछा-'विदुर ! आज पूरे दिन कुमार दिखाई नहीं पड़ा, क्या बात है ? जरा पता लगायो ।' उत्तर में विदुर ने कहा-प्रभो! कुमार श्री के साथ अपनी पुरानी मित्रता को याद कर आज प्रात: मैं उनसे मिलने उनके कक्ष में गया था। परिजन से मैंने पूछा कि क्या कुमार घर में हैं ? तब उनके सेवकों ने मुझे बताया कि वे तो थोड़ी रात बाकी थी तभी जंगल में शिकार करने चले गये। [२०-२२]
मेरे यह पूछने पर कि कुमार आज ही शिकार करने गये हैं या नित्य ही जाते हैं ? उन्होंने बताया कि, 'भद्र ! जब से यहाँ से जाते हुए रास्ते में कुमार श्री का हिंसादेवी से परिणय हुआ है तभी से वे नित्य शिकार करने जाते हैं। जिस दिन किसी कारण वश नहीं जा पाते उस दिन उन्हें किंचित् भी चैन नहीं पड़ता। अधिक क्या कहें ? मृगया का शौक उन्हें इतना अधिक हो गया है कि वे उसे अपने प्रारणों से भी प्रिय समझते हैं ।' महाराज ! इस बात को सुनकर मेरे मन में विचार आया कि दुर्भाग्य ने हमें मन्दभागियों को खूब फंसाया है ! मुझे कहावत याद आई कि, 'जो ऊँट की पीठ पर न समा सके उसे उसके गले में बाँध दिया जाता है।'
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