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उपमिति-भव-प्रपंच कथा
सुनकर द्रुम मुझ पर झपटा। हिंसा देवी ने फिर मेरी तरफ दृष्टिपात किया। मैंने दूर से ही अर्धचन्द्रबाण उसके ऊपर फेंका जिससे द्रुम का सिर उड़ गया और उसको सेना में भी भाग-दौड़ मच गई। इस प्रकार मैंने दो राजाओं पर विजय प्राप्त की जिससे आकाश स्थित सिद्ध, विद्याधर और देवताओं ने जय-जयकार किया।
तीसरी तरफ विभाकर कनकशेखर से लड़ रहा था। प्रारम्भ में अनेक प्रकार के तीरों की वर्षा करने के पश्चात् उसने कनकशेखर पर अग्निबाण, सर्पबाण
आदि मंत्रित अस्त्र फेंकने शुरू किये, परन्तु उन्हें काटने के लिये कनकशेखर ने वरुण बारण, गरुडबाण आदि का प्रयोग कर उनका निवारण किया। उस समय अपने हाथ में तलवार लेकर विभाकर रथ से नीचे उतरा । जमीन पर से युद्ध करने वाले के साथ रथ में बैठकर युद्ध करना अनुचित होने से कनकशेखर भी हाथ में तलवार लेकर रथ से नीचे उतरा। अनेक प्रकार से तलवार चलाते हए, मर्मभाग पर प्रहार करने का मौका ढूढते हुए, अपने प्रहार को बचाते हुए और सामने वाले पर प्रहार करते हुए वे बहुत देर तक युद्ध करते रहे। अंत में मौका देखकर कनकशेखर ने विभाकर के कंधे पर एक भरपूर वार किया, जिससे विभाकर जमीन पर गिर कर मूछित हो गया। कनकशेखर की सेना में हर्षोल्लास फैल गया। उस समय कनकशेखर ने हर्षध्वनि को रोक कर विभाकर के शरीर पर पानी के छींटे देते, हवा करते और मा दूर करने के प्रयत्न करते हुए कहा --'अहो राजपुत्र! तुम्हें धन्य है । तुमने अन्त तक पौरुषबल का त्याग नहीं किया, दीनता स्वीकार नहीं की, पूर्व-पुरुषों की यशः स्थिति को अधिक उज्ज्वल किया और अपना स्वयं का नाम चन्द्र में लिखवा दिया, अर्थात् अमर कर दिया। उठ ! और फिर लड़ने को तैयार हो जो कि राजपुत्र के योग्य है।' कनकशेखर की वाणी सुनकर विभाकर ने अपने मन में सोचा-'अहो! कनकशेखर की सज्जनता, गंभीरता, महानता, वीरता और वचनों की मधुरता महान है।' ऐसा सोचते हुए उसके हृदय में कनकशेखर के प्रति बहुत सन्मान हुना और वह उच्च स्वर में बोला-'आर्य ! अब युद्ध व्यर्थ है। आज आपने न केवल मुझे तलवार से ही हराया है अपितु सचमुच में आपने अपने सुन्दर व्यवहार से भी मुझे पराजित कर दिया है। ऐसे प्रशस्य वचन सुनकर कनकशेखर ने विभाकर को अपने भाई के समान मधुर वचनों से बुलाया और अपने पास रथ में बिठाया। इस प्रकार युद्ध बंद हा । शत्रु की संपूर्ण सेना ने कनकशेखर के सन्मुख प्रात्म-समर्पण कर दिया । लड़ाई का क्या परिणाम होगा ? इस विचार से कांपती हुई विमलानना और रत्नवती को वहाँ लाया गया, उन्हें मधुर वचनों से शांत किया गया और महाराजा कनकचूड ने स्वयं दोनों को उनके पतियों के रथ में बिठाया । इस प्रकार युद्ध-विजय कर हम फिर कुशावर्त नगर में प्रवेश करने की तैयारी करने लगे। नगर-प्रवेश : नन्दिवर्धन की मनःस्थिति
सब से आगे हाथी की अंबाडी पर बैठे इन्द्र की भांति सुशोभित राजा * पृष्ठ २५२
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