Book Title: Upmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Author(s): Siddharshi Gani, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
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उपमिति-भव-प्रपंच कथा है. वह मुझे जानती है । आज प्रातः जब मैं अपने बिस्तर से उठा भी न था कि वह आकर जोर-जोर से पुकार करने लगी, 'मित्र बचाभो ! बचायो !!' मुझे कुछ भी समझ में नहीं पाया, तब मैंने पूछा, 'कपिजला ! क्यों घबरा रही है ? क्या हुआ ? उसने बताया कि, 'वह कामदेव से घबरा रही है ।' मैंने कहा-'कपिजला ! तेरी बात विश्वास करने लायक नहीं है, क्योंकि तेरा शरीर तो अत्यन्त रौद्र श्मशान जैसा लग रहा है, तेरे शिर के लाल और पीले रंग के बाल चिता को ज्वाला के समान देदीप्यमान हो रहे हैं, तेरे शरीर की हड्डियों की आवाज श्मशान के सियारों को भयंकर आवाज जैसी लग रही है, सलवटों और काले दागों से भरा हुआ तेरा शरीर भयंकरतम दिखाई देता है और मांस रहित लटकते हुए तेरे मुर्दे के समान मोटे स्तन अति भयानक लगते हैं। तेरे ऐसे शरीर को देखकर स्वयं कामदेव भी कायर मनुष्य के समान डरकर चिल्लाता हुआ दूर भाग जाय और तू कहती है कि तुझे कामदेव से डर है ! अरे वह तो तेरे पास ही नहीं फटके । अतः तुझे क्या भय है ?'
कपिजला-अरे झूठे ! तू जानबूझ कर मेरी बात का अभिप्राय नहीं समझ रहा है अथवा नहीं समझने का ढोंग कर रहा है । तब मुझे स्पष्ट बताना ही पड़ेगा । सुन, मुझे कामदेव से क्यों भय है, तुझे बताती हूँ।
तेतलि- हाँ, मुझे स्पष्ट बता । कनकमंजरी का कामज्वर : बाह्योपचार
कपिजला -'तू भली प्रकार जानता है कि महाराज कनकचूड की रानी मलयमंजरी मेरी स्वामिनि है और उनके कनकमंजरी नाम की एक कन्या है।' तेतलि के मुख से कनकमंजरी का नाम सुनते ही मेरी दायीं आँख फड़कने लगी, होठ हिलने लगे, हृदय की धड़कन तेज हो गई, पूरा शरीर रोमांचित हो गया और मन का उद्वेग तो मानों मिट ही गया। मैं अपने मन में सोचने लगा कि यह मेरे मन में निवास करने वाली प्रियतमा कनकमंजरी ही होनी चाहिये । अतः उत्साह में पाकर मैं बीच ही में बोल पड़ा- हाँ, फिर आगे बता, कपिजला ने फिर तुझे क्या कहा ?' तेतलि मेरा भाव समझ गया और मन में सोचने लगा कि 'प्रिय के नामोच्चार को भी भारी महिमा है।' फिर कपिजला ने आगे जो बात कही थी उसका अनुसन्धान मिलाते हुए आगे बात चलाई।
कपिजला- भाई तेतलि ! यह कनकमंजरी मेरा स्तनपान कर बड़ी हई है अर्थात् मैं उसकी धाय हूँ। मुझे उससे इतना अधिक प्रेम है कि जैसे वह मेरा ही शरीर हो, मेरा ही हृदय हो, मेरा ही जीवन हो, मेरा ही स्वरूप हो । वह मुझे अपने से भिन्न नहीं लगतो । संप्रति वह मुग्धा बालिका कामदेव से * पृष्ठ २५७
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