Book Title: Upmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Author(s): Siddharshi Gani, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
View full book text
________________
प्रस्ताव ३ : कनकमंजरी
३४६ बिल्कुल सच्ची है । पुत्री ! तुझे इसके अतिरिक्त किसी बात की कल्पना भी नहीं करनी चाहिये।
'अरे ! मेरे ऐसे भाग्य कहाँ ?' धीरे-धीरे मन में बोलती कनकमंजरी नीचा मुंह कर खड़ी रही। पूरी रात हमने कनकमंजरी को पतिभक्ता सतो स्त्रियों के चरित्र सुनाने और उसका मनोरंजन करने में व्यतीत की। भाई तेतलि ! अभी प्रातःकाल में भी कनकमंजरी का दाह-ज्वर शांत नहीं हुआ है । अत: मैंने मन में विचार किया कि यदि इसको कुल परम्परानुसार विवाह के प्रसंग पर ही नन्दिवर्धन के दर्शन होंगे तब तो यह इतने समय में मर जायगी या मरने जैसी हो जायगी । यही सोचकर मैं तुमसे मिलने आई हूँ। कुमार का भी तुम्हारे प्रति प्रेम है अतः तुम उन्हें सूचित कर सकोगे और यदि किसी प्रकार आज ही इसको कुमार के दर्शन हो जायं तो यह बच जायगी । हे तेतलि ! यह विचार करके ही मैं प्रात: ही तेरे पास आई है। इसी कारण से मैंने तुझे कहा कि कामदेव से मुझे बहुत भय लग रहा है, वह तो तू अब समझ ही गया होगा, अब तू जैसा कहे वैसा करें। मिलन-स्थान का संकेत
तेतलि-अरे कपिजला ! हमारे कुमार ने सब इन्द्रियाँ वश में कर रखी हैं और स्त्रियों को तो वे तृतुल्य गिनते हैं, क्योंकि वे महापुरुष हैं। फिर भी तुम्हारे लिये मैं कुमार को सूचित करूंगा कि वे अपना दर्शन देकर कुमारी के प्राण बचायें। केवल तू कुमारी को साथ लेकर रति-मन्मथ उद्यान में कुमार से मिलने आ जाना।
____ कपिजला-बहुत उपकार किया । मैं आपका अन्तःकरण से प्राभार मानती हूँ।
- तेतलि- स्वामिन् नन्दिवर्धन ! उपरोक्त कथन के साथ ही कपिजला ने मेरे चरण स्पर्श किये । मेरा बहुत बहुत आभार माना और वह कुमारी के महल की अोर गई तथा मैं यहाँ आया । * अतः आपको जो व्याधि हुई है, उसकी यह प्रौषधि भी मैं अपने साथ लेकर आया हूँ।
नन्दिवर्धन-धन्य तेतलि ! धन्य !! तू ने बहुत अच्छा किया। कैसे बात करनी चाहिये यह भी तू अच्छी तरह जानता है।
ऐसा कहकर मैंने अपने गले का हार और हाथ के बाजूबन्द आदि भी उतारकर उसे पहना दिये । तेतलि ने कहा-कुमार ! इस तुच्छदास पर आपने इतनी बड़ी कृपा की यह उचित नहीं लगता।'
नन्दिवर्धन-आर्य तेतलि ! प्राण बचाने वाले प्रवीण वैद्य को तो जितना दिया जाय उतना ही थोड़ा है । इसमें अच्छा नहीं लगने की बात ही क्या है ? तुझे इस प्रसंग में किसी भी प्रकार का विचार नहीं करना चाहिये । तुझे समझ लेना चाहिये कि अब तू मेरे प्राण से भिन्न नहीं है।
* पृष्ठ २६१
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org