Book Title: Upmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Author(s): Siddharshi Gani, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
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प्रस्ताव ३ : कनकमंजरी
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नन्दिवर्धन की विरहदशा
* मेरे राजभवन में पहुंचने पर मेरा हृदय तो शून्य था ही फिर भी दैनिक कार्यों को जैसे-तैसे निपटाकर मैं अपने भवन की सब से ऊपर वाली मंजिल पर पहुँचा। मैंने अपने सब सेवकों को छुट्टी दे दी और अकेला पलंग पर जाकर पड़ा रहा । उस समय मुझे कनकमंजरी के सम्बन्ध में एक के बाद एक अनेक विचार आने लगे। अनेक तर्क-वितर्क होने लगे । संकल्प जाल में फंसकर मैं कल्पना-तरंग में इतना तरंगित हो गया कि मुझे यह भी भान नहीं रहा कि में कहीं गया हूँ या
आया हूँ ? बैठा हूँ या सो रहा हूँ ? अकेला हूँ या मैं मेरे परिवार और सेवकों के साथ हूँ ? जाग्रत हूँ या सुप्त हूँ ? रो रहा हूँ या हँस रहा हूँ ? सुख में हूँ या दुःख में हूँ ? यह मेरी प्रेमातुरता है या मुझे कोई रोग है ? कोई महोत्सव है या विपत्ति है ? और तो और यह भी भान नहीं रहा कि यह दिन है या रात है ? मैं जीवित हूँ या मृत हूँ ? जब मुझे किचित् सहज चेतना आयी तब सोचने लगा कि अब मैं कहाँ जाऊँ ? क्या करूं ? क्या सून? क्या देखू ? क्या बोलू? और किससे कहूँ ? मेरे इस दुःख का प्रतीकार क्या है ?
इस प्रकार मेरे मन में बहुत व्याकुलता थी। मैंने अपने सभी सेवकों को अन्दर आने की पूर्ण मनाई कर रखी थी। शय्या पर पड़ा हुआ मैं थोड़ी देर इस करवट तो थोड़ी देर उस करवट लोट रहा था और मन में घबरा रहा था। पूरी रात नारकीय तीव्र वेदना को सहन करते हुए मैं पलंग पर पड़ा रहा परन्तु मुझे एक क्षण भी नींद नहीं आई। ऐसे ही विरह दुःख में मेरी पूरी रात बीत गई। प्रभात में सूर्य उदय हुआ, पर प्रातःकाल का आधा पहर भी वैसे ही वेदना में बीत गया। सारथि तेतलि का प्रश्न :
उसी समय मेरा सारथि तेतलि मेरे भवन में आया। वह मेरा विशिष्ट विश्वासपात्र सेवक होने से किसी ने उसे मेरे पास आने से नहीं रोका । मेरे पास आकर उसने मेरा चरण-स्पर्श किया और जमीन पर बैठकर हाथ जोड़ कर कहने लगा-'देव ! आप तो जानते ही हैं कि नीच पुरुषों में चपलता अधिक होती है। उसी चपलता के वश होकर मैं आपसे कुछ निवेदन करना चाहता हूँ। वह अच्छी हो या बुरी आप उसे सुनने की कृपा करें।' उत्तर में मैंने कहा-'भाई तेतलि ! तुझे जो कुछ कहना हो सुख से विश्वास पूर्वक कह । तेरे लिये किसी प्रकार की रोक नहीं है। ऐसी सामान्य बात के लिये तुझे कूर्चशोभक (लागलपेट) पूर्वक पूछने की भी क्या आवश्यकता थी ?' उसके पश्चात् हम दोनों के मध्य निम्न बात हुई:
तेतलि-यदि ऐसा है तो कुमार ! सुनिये, मैंने आपके दूसरे सेवकों से सुना है कि कल जब से आप रथ से उतरे हैं तभी से उद्विग्न हैं, इसका क्या कारण * पृष्ठ २५४
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