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उपमिति-भव-प्रपंच कथा
सार पर विचारणा
गुरुदेव का उत्तर सुनकर मुझे विचार हुआ कि मेरे जैसा प्राणी जो सर्व प्रकार की आरम्भ-समारम्भ की प्रवृत्ति करता है, उसका सर्व प्रकार की हिंसा से बचना तो दुष्कर ही है। फिर गुरु महाराज ने ध्यान योग की शिक्षा दी, पर मेरे जैसे विषयवासना में लिप्त और अस्थिर मन वाले को ध्यान योग की साधना तो और भी कठिन लगी। फिर गुरुदेव ने रागादि शत्रुओं पर अंकुश लगाने की बात की, पर यह भी तत्त्वपरायण और प्रमाद रहित व्यक्ति ही साध सकते हैं, मेरे जैसों का रागादि पर विजय प्राप्त करना भी अशक्य है। फिर गुरुदेव ने अन्तिम शिक्षा स्वधर्मी बन्धुनों पर प्रेम रखने के लिये दी। वह शायद मेरे जैसे से पालन हो सकता है, ऐसा मुझे लगा । अत: मैंने निश्चय किया कि अपनी शक्ति के अनुसार मैं इस विषय में प्रयत्न करूंगा। क्योंकि, अपना हित चाहने वाले व्यक्ति को धर्म के सार को समझकर उसके अनुसार आचरण करना चाहिये। ऐसा विचार कर, गुरुदेव को वन्दना कर मेरे संवेग की वृद्धि करता हुआ मैं राज्य भवन में आया ।[१६-२१] स्वधर्मीवात्सल्य
मेरे पिता का मैं एकमात्र पुत्र होने से वे मुझे अपने जीवन से भी अधिक चाहते थे। मेरे पिता की मेरे पर बहत कृपा थी अतः मेरी जो भी इच्छा होती उसे वै पूरी करते थे। फिर भी मैं नीति और विनय के अनुसार कार्य करता, कभी भी शीध्रता नहीं करता था । राजनियम के अनुसार एक दिन मैंने अपने पिताजी से नम्र निवेदन किया- पिताजी ! जैन धर्मानुयायियों के प्रति हो सके इतना वात्सल्य करने की मेरी इच्छा है, अत: आप मुझे ऐसा करने की आज्ञा प्रदान करें ।' मेरे साथ पिताजी भी जैन शासन के प्रति भद्रिक-भाव रखने वाले बन गये थे, अतः उन्हें मेरी प्रार्थना रुचिकर प्रतीत हुई। उन्होंने कहा – 'वत्स ! यह राज्य तेरा है, मेरा जीवन भी तेरे लिये ही है, तेरी जो इच्छा हो वह कर, मुझे पूछने की कोई आवश्यकता नहीं है।' पिताजी का ऐसा अनुकूल उत्तर सुनकर मेरा हृदय हर्ष से परिपूरित हो गया। मैंने उनका चरण स्पर्श किया और "आपकी बड़ी कृपा" ऐसा कहते हुए मन में बहुत प्रसन्न हुया । उसके पश्चात् मेरे देश में नवकार मन्त्र को धारण करने वाले प्रत्येक व्यक्ति को चाहे वह अन्त्यज (अछत) या अन्य कोई भी हो, मैं अपना भाई मानने लगा और उनके प्रति अत्यन्त प्रेम पूर्ण व्यवहार करने लगा। उन्हें आवश्यकतानुसार खाच, वस्त्र, आभूषण, जवाहिरात और द्रव्य देकर सार्मिकों की पूर्ति करने लगा । पुनश्च, सम्पूर्ण देश में मैंने घोषणा करवाई कि 'नमस्कार महामन्त्र का स्मरण और धारण करने वालों से किसी भी प्रकार का कर नहीं लिया जायगा, उनके लिये कर माफ किया जाता है ।' घोषणा में मैंने इसका भी विशेष रूप से उल्लेख किया कि 'साधु मेरे परमात्मा, साध्वियाँ आराध्यतम परम देवियाँ और * पृष्ठ २३८
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