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प्रस्ताव ३ : दुर्मुख और कनकशेखर
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इसके मन पर इस दर्शन का अपरिवर्तनीय प्रभाव पड़ा है। यही कारण है कि मेरी बात सुनकर यह मुझ पर क्रोधित हो गया है । अब इस सम्बन्ध में अधिक कहकर इसे उत्तेजित (क्रोधाविष्ट) करना उपयुक्त नहीं है । राजा को तो मैंने पहले ही पट्टी पढा रखी है अतः मेरी जैसी इच्छा होगी वैसा करूंगा । अभी तो इसके कहे अनुसार ही करूँ।
अपने मन में इस प्रकार सोचते हुए प्रकट रूप में दुर्मुख ने कहा-धन्य ! कुमार धन्य ! ! तुम्हारी सद्धर्म पर अटूट स्थिरता है इसमें सन्देह नहीं। तुम्हारी परीक्षा करने के लिये ही मैंने उपरोक्त बात कही थी। अब मुझे निश्चय हुपा कि धर्म में तुम्हारे मन की स्थिरता मेरुशिखर की स्थिरता को भी तिरस्कृत करने वाली है । आप मेरे वचन पर ध्यान न दें और उसे अन्यथा न समझे ।
____ मैंने भी वैसा ही शुष्क उत्तर दिया, 'इसमें कहना ही क्या है आर्य ! आपके जैसे अन्य कल्पना करें यह भी अशक्य है !' इतना सुनकर दुर्मुख मेरे पास से चला गया।
दुर्मुख के जाने के बाद मैंने सोचा कि दुर्मुख दुष्ट, शठ प्रकृति वाला, धूर्त और पापी है। इसकी वाणी और आचरण में कितनी सत्यता है यह नहीं कहा जा सकता। इसका कारण यह है कि पहले इसने मेरे से बात की तब तो बहुत सोचसोचकर बोल रहा था, मगर मेरा उत्तर सुनकर उसने शीघ्रता से बात बदल दी। अत: इसकी क्या इच्छा है यह जानना चाहिये। मेरे पास एक बहुत ही विश्वसनीय युक्ति सम्पन्न बुद्धिमान चतुर नामक लड़का था। मैंने उसे सब बात समझाकर जांच करने भेजा। कुछ दिन बाद वह वापस मेरे पास आकर बोला-'राजकुमार ! आपके पास से जाकर मैंने अनेक प्रकार से दुर्मुख को मना कर उसके अंगरक्षक के रूप में नौकरी प्राप्त की और देखने लगा कि क्या हो रहा है ?' दुर्मुख ने सब स्थानों से प्रमुख व्यक्तियों को बुलाकर कहा कि, 'अरे ! यह कनकशेखर कुमार तो व्यर्थ ही मिथ्याधर्म के आवेश में आकर भूत-प्रेरित की तरह राज्य का नाश करने पर तुला है । अतः अब से वह कुछ भी दान में दे तो वह दान की हुई वस्तु या धन और तुममें जो राज्य का कर बकाया हो वह भी गुप्त रूप से मुझे दे दिया करो। ध्यान रहे कि यह बात भूल से भी कुमार को मालूम नहीं होनी चाहिये । यदि ऐसा नहीं करोगे तो प्राण दण्ड दिया जायगा।' महामात्य दुर्मुख की इस आज्ञा को श्रावकों ने शिरोधार्य किया और मन्त्री के पास से बाहर निकले।
नन्दिवर्धन को अपनी बात सुनाते हुए कनकशेखर ने आगे कहा .चतुर की बात सुनकर मैंने उससे पूछा कि, 'भद्र ! क्या पिताजी को यह सब मालूम है ?' चतुर ने कहा, 'हाँ, पिताजी को सब ज्ञात है।' मैंने फिर पूछा कि, 'पिताजी को यह सब कैसे विदित हुअा ?' तब उसने कहा कि, 'पिताजी को दुमुख ने ही सब बता दिया है ।' मैंने फिर पूछा कि, 'पिताजी ने यह सब सुनकर क्या किया ?' तब चतुर ने कहा कि, 'यह सब जानकर भी पिताजी ने कुछ भी नहीं किया, केवल गजनिमीलिका
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