Book Title: Upmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Author(s): Siddharshi Gani, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
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प्रस्ताव ३ : चार प्रकार के पुरुष
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चरित्र के कारण हंसी के पात्र बनते हैं । वे इतने विषयान्ध बन जाते हैं कि मर्यादाहीन होकर अगम्य स्त्रियों के साथ भी विषय सेवन की इच्छा करते हैं, जिससे वे लोगों की दृष्टि में प्राक की रुई से भी अधिक तुच्छ बन जाते हैं । स्त्रियों के साथ विषय- संभोग और ऐसे ही अन्य प्रधम कार्य उनके हृदय में कदाग्रह और दुराग्रह के कारण ऐसी जड़ जमा लेते हैं कि जिससे उन्हें जो दुःख होते हैं और संसार में उनकी विडम्बना और निन्दा होती है उसका वर्णन वाणी द्वारा करना अशक्य है । सक्षेप में, संसार में जितनी विडम्बनाएँ / पोडाएँ शक्य हैं वे सब ऐसे जघन्य प्राणी को भोगनी पड़ती हैं । ऐसे प्राणी अपने स्वभाव से ही गुरु, देव और तपस्वियों के शत्रु होते हैं, गर्हित पापाचरण करने वाले और अत्यन्त निर्भागी तथा गुणों को दूषित करने वाले होते हैं । वे महामोह के वशवर्ती होते हैं, अतः यदि कोई उनके हित के लिये उन्हें सन्मार्ग पर चलने का उपदेश देते हैं तो उसे नहीं सुनते और कभी सुन भी लेते हैं तो उसे स्वीकार नहीं करते । [ १५७ - १७० ]
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आचार्यश्री का उपदेश सुनकर मनीषी और मध्यमबुद्धि अपने मन में विचार करने लगे कि आचार्य ने स्पर्शनेन्द्रिय-लुब्ध जवन्य वर्ग के जीवों का जो विशदरूप कहा है वह सचमुच बाल में अक्षरशः सत्य दिखाई देता है । प्राचार्य के वचन सत्य हैं, क्योंकि उन्हें ज्ञानदृष्टि से जो दिखाई नहीं देता उसके बारे में वे कभी नहीं बोलते । [ १७१-१७३]
बाल ने तो आचार्यश्री के उपदेश की तरफ लेशमात्र भी ध्यान नहीं रखा, वह पापी तो रानी मदनकन्दली की तरफ ही एकटक देख रहा था और उसके साथ विषय-भोग करने के विचार में ही लुब्ध हो रहा था । [ १७४ ]
सूरि महाराज ने अपने उपदेश का उपसंहार करते हुए कहा - राजन् ! मैंने वन्य प्राणियों का जो वर्णन किया वह तुम्हें समझ में आगया होगा । विशेषता यह है कि संसार में इस वर्ग के प्राणी ही सबसे अधिक होते हैं, पहले तीन वर्ग के प्राणी तो त्रैलोक्य में भी बहुत थोड़े होते हैं । जैसा कि पहले मैंने आपके सन्मुख प्रतिपादन किया है तदनुसार मेरे कथन का तात्पर्य यह है कि स्पर्शनेन्दिय को जीतने वाले प्रारणी त्रैलोक्य में भी बहुत ही विरले होते हैं । [१७५–७७] *
शत्रुमर्दन - जीव धर्म का आचरण क्यों नहीं कर सकता ? इस प्रश्न का उत्तर देकर आपने मेरी शंका का समाधान किया जिसके लिये मैं आपका बहुत आभारी हूँ । [१७८ ]
चार प्रकार के प्राणियों का विवेचन
इस अवसर पर सुबुद्धि मन्त्री ने कहा- महाराज ! आपने अभी जो पश्चानुपूर्वी से उत्कृष्टतम, उत्तम, मध्यम, जघन्य चार प्रकार के प्राणियों के स्वरूपों
* पृष्ठ २०७
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