Book Title: Upmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Author(s): Siddharshi Gani, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
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प्रस्ताव ३ : शत्रुमर्दन आदि का प्रान्तरिक आह्लाद
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सकता है। ऐसा सोचते हुए शत्रुमर्दन राजा ने कहा-भगवन् ! आप द्वारा वरिणत गृहस्थ-धर्म मुझे भी प्रदान करने की कृपा करें।
प्राचार्य-राजन् ! मैं तुम्हें वह धर्म ग्रहण करवाता हूँ। ऐसा कहकर आचार्यश्री ने शत्रुमर्दन राजा और मध्यमबुद्धि को विधिपूर्वक गृहस्थ-धर्म प्रदान किया।
१५ : शत्रुमर्दन आदि का आन्तरिक आह्लाद
आचार्यश्री मनीषी को दीक्षा देने को तैयार हुए तब शत्रुमर्दन राजा ने आचार्यश्री के चरण छकर कहा-भगवन् ! मनोषो ने भाव से तो भागवती दीक्षा ले ही ली है जिससे वह कृतकृत्य हो गया है। मनीषी का उद्देश्य लेकर हम हमारा संतोष प्रकट करने के लिये इसका दीक्षा महोत्सव मनाने की अभिलाषा रखते हैं, उसके लिये आप हमें प्राज्ञा प्रदान करें। द्रव्यस्तव और गुरु
शत्रमर्दन राजा की बात सुनकर * आचार्यश्री मौन रहे। तब सुबुद्धि मन्त्री ने राजा से कहा-देव ! आपको जब द्रव्य-स्तव में प्रवृत्ति करनी हो तब गुरु महाराज से पूछने की आवश्यकता नहीं है । इस सम्बन्ध में प्राचार्यश्री को कुछ भी आदेश देने का अधिकार नहीं है । आप जैसे लोगों को जहाँ अवसरानुकूल योग्य लगे वहाँ द्रव्य-स्तव करना चाहिये । प्राचार्यश्री तो द्रव्यस्तव का अनुमोदन मात्र करते हैं; अर्थात् जब कोई द्रव्यस्तव करता है तो उसका यथास्वरूप वर्णन करते हैं, उसको योग्य स्थान पर करने का संकेत करते हैं और यथा अवसर द्रव्यस्तव का उपदेश देते हैं। जैसे कि उदारता एवं विशालता के साथ देव-पूजा करना आपका कर्तव्य है। देवपूजा के अतिरिक्त धन-व्यय का दूसरा कोई श्रेष्ठतम स्थान नहीं है, आदि । अतः पापको जैसा योग्य लगे वैसा आप स्वयं करें। हम मनीषी से प्रार्थना करें कि वह दीक्षा लेने में थोड़े समय का व्यवधान करें, जिससे कि हम दीक्षा महोत्सव मना सकें। राजा ने ऐसा ही करने सम्मति दी। जिन मन्दिर में पूजन महोत्सव
तदनन्तर राजा और मन्त्री ने बहुमानपूर्वक मनीषी से प्रार्थना की कि हमारा विचार दीक्षा महोत्सव करने का है अतः आप दीक्षा लेने में थोड़ा विलम्ब करें।
मनीषी ने अपने मन में सोचा कि धर्म के कार्य में विलम्ब करना ठीक नहीं है, फिर भी जब बड़े लोग आदरपूर्वक प्रार्थना करते हैं तब उनकी अवहेलना
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