________________
प्रस्ताव ३ : चार प्रकार के पुरुष
२७७
की है, जैसा स्वरुप का वर्णन किया है वैसा मैंने स्वयं अनुभव किया हो ऐसा लग रहा है । उसी समय मध्यमबुद्धि ने भी विचार किया कि प्राचार्य महाराज द्वारा वरिणत उत्तम पुरुष के सभी गुरण मनीषी में दिखाई देते हैं । [१३५-१३६] मध्यम प्राणी का स्वरूप ।
राजा शत्रुमर्दन ! मैंने उत्कृष्टतम और उत्कृष्ट पुरुषों का वर्णन किया। अब मध्यम पुरुष का वर्णन कर रहा हूँ, ध्यानपूर्वक सुनें ।
__ जो लोग मनुष्य जन्म को प्राप्त कर स्पर्शनेन्द्रिय का स्वरूप मध्ममबुद्धि (सामान्य दृष्टि) से समझ पाते हैं वे मध्यम प्राणी हैं । इस वर्ग के प्राणी स्पर्शनेन्द्रिय को प्राप्त कर उसके सुख में प्रासक्त हो जाते हैं, पर जब कोई विद्वान् पुरुष उन्हें अनुशासित करते हैं (उस इन्द्रिय का स्वरूप और उसके भोग के फल के सम्बन्ध में उपदेश देते हैं) तब उनका मन चंचल हो उठता है। वे डांवाडोल बुद्धि वाले मन में विचार करते हैं कि इस विचित्र संसार में हम क्या करें ? एक तरफ देखें तो अनेक प्राणी इन्द्रिय-भोगों की प्रशंसा करते हैं और अधिकांश प्राणी आनन्द पूर्वक उसका सेवन करते हैं, तो दूसरी तरफ कुछ प्रशान्त आत्मा वाले प्राणी सर्व प्रकार की इच्छाओं का त्याग कर भोग की निन्दा करते हैं । तब इस उलझन भरे संसार में मुझ जैसों को कौनसा मार्ग स्वीकार करना चाहिये ? कुछ समझ में नहीं प्राता। ऐसे विचारों से वे शंकालु बन जाते हैं और दोनों में से किसी एक मार्ग को ग्रहण करने का निर्णय नहीं कर पाते । * जब उन्हें कुछ नहीं सूझता तब वे ऐसे ही समय व्यतीत करते हैं और सोचते हैं कि किसी एक पक्ष को स्वीकार करने से पूर्व गुणावगुण परीक्षण करने के लिये कालक्षेप करना ही योग्य है । मनुष्य के जैसे कर्म होते हैं वैसे ही उसकी बद्धि बनती है। विद्वान् लोगों ने कहा ही है कि 'बुद्धिः कर्मानुसारिणी' अर्थात् शुभ और अशुभ कर्मों के अनुसार ही बुद्धि भी उत्पन्न होती है । फलत: चित्त की डांवाडोल अवस्था में वे स्पर्शनेन्द्रिय को सुख का कारण तो मानते हैं और उसके अनुकूल आचरण भी करते हैं किन्तु उसमें अधिक प्रासक्त नहीं होते। अतएव स्पर्शनेन्द्रिय के वशवर्ती होकर वे कोई लोकविरुद्ध प्राचरण नहीं करते, जिससे उन्हें अनर्थकारी दुःख भी नहीं होता। ज्ञानी पुरुष उन्हें जो उपदेश देते हैं उसे वे भली प्रकार सुनते और समझते हैं, किन्तु उन्होंने पहले कभी दुःख देखा ही नहीं इसलिये वे उस उपदेश के अनुसार आचरण नहीं कर पाते । कभी-कभी वे अज्ञानी प्राणियों के स्नेह में पड़कर उनसे मित्रता कर बैठते हैं, इसके फलस्वरूप कभी-कभी वे भयंकर दुःख भी प्राप्त करते हैं और वे लोक-निंदा को भी प्राप्त होते हैं; क्योंकि पापी मनुष्यों की संगति समस्त प्रकार के अनर्थों को उत्पन्न करने वाली होती है। जब वे विद्वान् पुरुषों द्वारा ज्ञान प्राप्त कर यह समझ जाते है कि अपना वास्तविक हित किसमें है, तब उनके आदेशानुसार प्रवृत्ति भी
* पृष्ठ २०५
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org