Book Title: Upmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Author(s): Siddharshi Gani, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
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उपमिति-भव-प्रपंच कथा
आप लोगों को भी अज्ञान के कारण ही पाप की प्राप्ति हुई है। हिंसा आदि समग्र दोषों की प्रवृत्ति का मूल कारण यह अज्ञान ही है। [१७-२२] प्रार्जव का स्वरूप
अभी आप लोगों ने देखा कि बढते हए पाप को लात मारकर आर्जव ने रोक दिया था, अतः आर्जव का स्वरूप सुनें। [२३]
यह प्रार्जव स्वरूप (स्वभाव) से ही प्राणियों के चित्त को अत्यन्त शुद्ध करने वाला होने से बढते हए पाप को रोक सकता है। सब प्राणियों में प्रार्जव यही काम करता है और आप लोगों के सम्बन्ध में भी उसने अपनी पद्धति से अज्ञान-जनित पाप को जीतने का कार्य कर दिखाया है। प्रकृति से हंसमुख बालक का रूप धारण करने वाला यह आर्जव सर्वदा हर्षित होकर 'मैं तुम्हारी रक्षा करूंगा' ऐसा निरन्तर कहता रहता है। जिन भाग्यशाली प्राणियों के चित्त में इस प्रार्जव का निवास होता है, वे कभी भूल से अज्ञानवश कुछ पाप कर्म कर भी लेते हैं तब भी बहुत थोड़े पाप का बन्ध करते हैं। आर्जव युक्त प्राणी जब शुद्ध मार्ग को जान जाते हैं तब कर्मों का नाश कर मोक्ष की तरफ प्रवृत्ति करते हैं। इस प्रकार ऋजुता युक्त शुभ्र मन वाले भाग्यशाली प्राणी जीवन पर्यन्त निष्कपट आचरण करते हुए इस संसार सागर को पार कर लेते हैं । [२३-२६] । धर्माचरण-कर्तव्य
आप सब भद्र प्राणियों को प्राजव भाव प्राप्त हया है और उसके स्वरूप को भलीभांति समझ गये हैं। अब आप लोग सम्यक् धर्म का आचरण कर अज्ञान और पाप का प्रक्षालन कर दें। [३०]
विद्वान् मनुष्य को यह सोचना चाहिये कि अज्ञान और पाप से मुक्त होने के लिये इस संसार में विशुद्ध धर्म ही आदर करने योग्य वस्तु है । इसके अतिरिक्त जो कुछ है वह सब दु:ख का कारण है। अपने प्रियजनों के साथ का संयोग अनित्य है, ईर्ष्या और शोक से व्याप्त है, यौवन अस्थिर (चपल) है और बुरे आचरणों का निवास स्थान है । अनेक प्रकार के क्लेश से उत्पन्न सम्पत्ति भी अनित्य है और यह जीवन जो समस्त कल्पनाओं का धारक है वह भी अनित्य है । जो जन्मता है वह मरता ही है। मृत्यु के बाद जन्म और फिर मृत्यु इस प्रकार जन्म-मरण का चक्कर पुनः पुनः चलता ही रहता है । उसमें भी कर्म के अनुसार अधम स्थानों में भी जन्म लेना पड़ता है, अतः संसार में किसी भी प्रकार का सुख नहीं है । इस संसार की सभी वस्तुएँ स्वभाव से ही असुन्दर (नाशवान) हैं। अतएव विवेकी प्राणियों को नाशवान एवं अनित्य पदार्थों के साथ प्रास्था या सम्बन्ध रखना युक्त नहीं है। इस संसार में यदि कोई वस्तु चाहने योग्य है तो वह सनातन, कलंक
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