Book Title: Upmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Author(s): Siddharshi Gani, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
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उपमिति-भव-प्रपंच कथा
ऐसा है तो तुझे विषाद नहीं करना चाहिये, तेरे भाई के साथ तेरा मिलन अवश्य होगा ।' मध्यमबुद्धि ने पूछा-मिलन किस प्रकार होगा ? उत्तर में नन्दन ने कहा, सुन
इस नगर में हमारे स्वामी राजा हरिश्चन्द्र राज्य करते हैं। उन्हें विजय, माठर, शंख आदि निकट में रहने वाले अन्य मांडलिक राजागरण बार-बार त्रास देते थे । हरिश्चन्द्र राजा का रतिकेलि नामक विद्याधर परम मित्र है । जिस समय शत्रुनों का उपद्रव चल रहा था, उस समय यह विद्याधर राजा के पास आया और उसे ऐसी करविद्या देने का वचन दिया है जिसके प्रभाव से वह शत्रुओं से कभी भी पराभव को प्राप्त न होगा। राजा ने विद्याधर मित्र का आभार माना। फिर विद्याधर ने यह विद्या सिद्ध करने के लिये राजा को छः महिने तक पूर्वाभ्यास (साधना) करवाया और आज से आठ दिन पहले वह विद्याधर राजा को साथ लेकर किसो स्थान पर गया। उससे अरि-विद्या की साधना करवायी और दूसरे दिन एक अन्य पुरुष के साथ राजा को वापिस नगर में ले आया। राजा के साथ लाये हुए उस पुरुष के माँस और खून से सात दिन तक होम-क्रिया करवाई। उस पुरुष को आज ही छोड़ा गया है, मेरे विचार से यही तेरा भाई होना चाहिये । राजा ने उस पुरुष को अभी-अभी मुझे सौंपा है । यह सुनकर मध्यमबुद्धि बोला-भद्र ! यदि ऐसा है तो शीघ्र ही उस पृरुष को मुझे दिखाने की कृपा करें जिससे मैं यह पता लगा सकू कि वह मेरा भाई है या नहीं। अच्छा, कहकर नन्दन तुरन्त ही उसको लेने के लिये गया और बाल को उठाकर शीघ्र ही वहाँ ले आया।
बाल को दुरवस्था
बाल के शरीर में केवल हड्डियाँ रह गई थीं, खन और माँस तो लगभग समाप्त प्रायः हो चले थे, मात्र साँस चल रही थी जिससे लगता था कि वह जीवित है । वह इतना कमजोर हो गया था कि उसकी जुबान भी बन्द हो गई थी। ऐसी स्थिति में बाल को देखकर मध्यमबुद्धि ने बड़ी कठिनता से उसे पहचाना, फिर तुरन्त ही नन्दन से कहा-'भाई ! जिसके बारे में मैं तुझ से पूछ रहा था, यही मेरा भाई है। सचमुच तू नाम और काम से भी नन्दन ही है, तेरा नाम सार्थक है, तुमने आज मुझ पर बहुत बड़ा उपकार किया है।' उत्तर में नन्दन बोला -'भाई मध्यमबुद्धि ! तुझ पर कर गा लाकर मैंने यह राजद्रोह का कार्य किया है । अभी मैं तेरे भाई बाल को लेने गया तब सुना कि आज रात को राजा फिर रक्त से विद्या को तृप्त करेगा, तब इस पुरुष की आवश्यकता पड़ेगी। अतः मेरा तो जो होना होगा वह होता रहेगा तू तो इसे लेकर शीघ्र ही यहाँ से भाग जा, बाद में जो होगा उसे मैं देख लगा।' मध्यमबुद्धि ने नन्दन का उपकार मानते हुए उसकी आज्ञा को स्वीकार किया और
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