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उपमिति-भव-प्रपंच कथा
कारण उनका अपना पापाचरण है। पापी मनुष्यों को दृष्टि में विकार होने से वे शुद्ध रूप से आपको नहीं देख सकते। हे प्रभो ! राग-द्वेष और महामोह के सूचक हास्य, शस्त्र, विलास और अक्षमाला से रहित ! हे निष्पाप ! पवित्र ! नाथ ! आपको नमस्कार हो ! हे प्रभो ! आप तो अनंत गुणों से भरपूर हैं, आपकी स्तुति मैं क्षद्र प्राणी कैसे कर सकता हूँ? मैं तो जड़वृद्धि वाला हूँ परन्तु आप के प्रति प्रगाढ़ सद्भावना से बंधा हुआ हूँ। हे नाथ ! मेरे मन में जो शुभ भावनायें हैं, जिन्हें मैं वचन द्वारा प्रकट नहीं कर सकता, उन सबको आप तो स्वयं भली प्रकार जानते हैं. अत: भव-परम्परा का नाश करने वाली आपकी निश्चल भक्ति मुझे भव-भव में प्राप्त हो, ऐसी कृपा करें। [२८-४३]
__ इस प्रकार त्रिलोकनाथ प्रादीश्वर भगवान् की स्तुति कर, खड़े होकर, जिनमुद्रा धारण कर क्षमाश्रमणादि पूर्वक फिर से पंचांग प्रणाम किया । अन्त में मुक्ताशक्ति मुद्रा धारण कर अति सुन्दर प्रणिधान सूत्रों द्वारा प्रभु की स्तुति कर नमस्कार किया। इस सुकृत्य कार्य-कलापों से मन्त्री अपनी आत्मा को बहुत कृतार्थ समझने लगा। फिर प्रानन्दाश्रुनों से प्राचार्यश्री के चरण-कमलों का सिंचन करते हुए गुरु महाराज को दोषनाशक द्वादशावर्त वन्दन किया। मन में समताभाव धारण कर सर्व साधुओं को भक्ति भाव से नमस्कार किया। प्राचार्यश्री और साधुओं से धर्मलाभ आशीर्वाद प्राप्त कर मन्त्री शुद्ध भूमि पर बैठा और प्राचार्य जी से सुखसाता पूछो। [४४-४७] प्राचार्य का धर्मोपदेश
। आचार्यश्री ने विशेष धर्मोपदेश देना प्रारम्भ किया। उपदेश में उन्होंने इस संसार की निर्गुणता की व्याख्या की और बतलाया कि इस संसार को बढ़ाने वाले वास्तविक कारण कर्म ही हैं। जो प्राणी पुरुषार्थ द्वारा सर्व कर्मों से मुक्ति प्राप्त करते हैं वे निर्वाण को प्राप्त होते हैं। प्राचार्यश्री प्रबोधनरति महाराज की अमृत सिंचन जैसी मधुर वाणी को सुनकर प्राणी मानसिक सन्ताप रहित हुए और उनके मन में आनन्द व्याप्त हुआ। [४८-५०] *
१२. चार प्रकार के पुरुष शत्रुमर्दन राजा ने अपने तेजस्वी नख-किरण-प्रकाशित दोनों हाथों को कमल के डोडे के समान जोड़ कर, स्वयं के ललाट तक लाकर, नमस्कार कर सूरि
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