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उपमिति-भव-प्रपंच कथा के प्राभूषण समान थे, और अतिशय विनयी साधुओं के मध्य में विराजमान थे। वे महा तपस्वी थे और संसार समुद्र से पार उतारने वाले तीर्थंकर महाराज के निष्कलंक शुद्ध सनातन धर्म का उपदेश प्राणियों को दे रहे थे। उस समय वे अनेक तारामण्डल से आवेष्टित चन्द्र को. तरह शोभायमान थे। [१-८]
मनीषी निर्मल चित्तवाला भावी भद्रात्मा था अतः उसने पहले जिनेश्वर भगवान की मूर्ति को और फिर आचार्य श्री को नमस्कार किया। तत्पश्चात् सर्व मुनियों के चरणकमलों की वन्दना की। मनोषी के पीछे-पीछे किंचित् शुद्ध मन से मध्यमबुद्धि ने भी भगवान्, प्राचार्य और साधुओं को नमस्कार किया। किन्तु पापिन माता अकुशलमाला और स्पर्शन के शरीराधिष्ठित होने के कारण अकल्याणकारी बाल ने किसी को भी नमस्कार नहीं किया। उसने न तो किसी की वंदना ही की और न चरण-स्पर्श ही किया, अपितु एक स्तब्ध मन वाले ग्रामीण की भांति इधर-उधर ताकता हुआ मनीषी और मध्यमबुद्धि के पीछे जाकर खड़ा हो गया। गुरु महाराज ने उन तीनों को धर्मलाभ आशोर्वाद दिया और प्रेम से संभाषण किया। फिर वे तीनों आचार्यश्री के सन्मुख जमीन पर बैठ गये। [६-१३] राजा शत्रमर्दन का उद्यान गमन
इधर सूरि महाराज उद्यान में पधारे हैं, यह लोगों से सुनकर जिनभक्त सुबुद्धि मन्त्री भी मुनि-वंदन के लिये तत्पर हुआ और शत्रुमर्दन राजा को भी प्रेरित करते हुए निवेदन किया कि मुनीन्द्र की वंदना करने आप पधारें । कहा है कि, 'साधु महात्मा के चरण-स्पर्श से जो इस जन्म में अपनी आत्मा के पाप-मल को धो लेते हैं * वे महा भाग्यवान और वास्तव में विचारशील बुद्धिमान प्राणी हैं।' सुबुद्धि मन्त्री के वचन सुनकर मदनकन्दली और अन्य अन्तःपुर की रानियों सहित शत्रुमदन राजा भी प्राचार्य श्री को वन्दन करने उद्यान की तरफ जाने के लिये निकला । राजा को उद्यान की तरफ सपरिवार जाते देखकर नगर की प्रजा और सेना को भी आश्चर्य हुआ तथा वे भी उद्यान की तरफ चल पड़े । सैन्य सहित शत्रुमर्दन राजा ने उद्यान में स्थित मंदिर में विराजमान युगादिदेव के चरणों में वन्दन कर अन्तःकरण के अपार हर्ष सहित प्राचार्य प्रबोधनरति और सर्व साधुओं को नमस्कार किया। प्राचार्यदेव और साधुओं ने आशीर्वाद दिया । पश्चात् विनय से मस्तक झुकाकर सब भूमि पर बैठ गए। [१४-२०] सुबुद्धि-कृत जिनपूजा और स्तुति
सूबुद्धि मन्त्री ने भी युगादिप्रभू के मन्दिर में प्राकर तीर्थंकर भगवान् के चरण-कमलों में नमस्कार किया और देवपूजा की समस्त क्रियाएँ विवेक एवं विधि पूर्वक सम्पन्न की। धूप, दीप आदि से देवपूजन करते समय भक्ति से उसके सर्व अंगों में एक प्रकार का अपूर्व उत्साह उत्पन्न हुआ। फिर तीर्थंकर महाराज को * पृष्ठ १६८
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