Book Title: Upmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Author(s): Siddharshi Gani, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
View full book text
________________
२६०
उपमिति-भव-प्रपंच कथा
तीसरा दुःख. इस प्रकार दुःख ही दु:ख प्राप्त होते हैं । ऐसे प्राणी को दुःख की पीड़ा से ही छूटकारा नहीं मिलता और ऊपर से लोगों का आक्रोश भी सहना पड़ता है। साथ ही अपने ही व्यक्ति शत्रों के कार्य-साधक बन जाते हैं। एक तो दुःख से जलता हो, उस पर लोगों में निन्दा हो तो 'गाँठ पर फोड़ा' अथवा 'जले पर डाम' लगाने जैसा असर होता है । कुबूद्धि बाल को ऐसा ही हुआ है। बाल के साथ सम्बन्ध रखने से मैं भी लोगों में दया का पात्र बना और कुछ तत्त्वविचारक लोगों ने तो मुझे बाल जैसा ही समझा । पापी बाल का साथ दुःख की खान और सज्जन पुरुषों द्वारा निन्दनीय है, यह बात अब मेरी समझ में आ गई है, अतः अब मुझे उसकी संगति कदापि नहीं करनी चाहिये । यह भी सिद्ध हो गया कि गुणों में प्रवर्तमान व्यक्ति को इसी भव में सकल संपत्ति प्राप्त हो जाती है और उसका उदाहरण मनीषी हमारे सामने है। उसने प्रारम्भ से ही बाल और स्पर्शन की संगति नहीं की जिससे अभी तक उस पर कोई कलंक नहीं लगा वह पूर्ण रूप से सूख से रहा और सज्जन पुरुषों का प्रशंसनीय बना। ऐसा प्रत्यक्ष दिखाई देने पर भी कई बार लोग दोष के प्रति निरन्तर आकर्षित होते हैं और गुण के प्रति हतोत्साहित होते हैं, इसका कारण पाप-कर्म का उदय ही है । मैंने तो गुरण और दोष के अन्तर को प्रत्यक्षतः देख लिया है । मनीषी के कथनानुसार मुझे तो अब गुण-प्राप्ति के लिये ही प्रयत्न करना चाहिये । [१-६]
इस प्रकार मन में विचार करते हुए उसने मनीषी से कहा - अभी तो मैं लोगों में प्रकटतया घूमने और मुह दिखाने योग्य नहीं रहा, क्योंकि बाल का वृत्तांत पूछकर लोग मुझे बार-बार तंग करेंगे । बाल का वृत्तांत अत्यन्त निन्दनीय और लज्जाकारी होने से उसे बार-बार कहना अच्छा नहीं लगता । बाल ने कैसे-कैसे कष्ट उठाये और कदर्थना प्राप्त की, यदि यह सब वृत्तांत दुर्जन लोग मुझसे सुनेंगे तो वे प्रसन्न होकर उस पर और अधिक हंसेंगे । अतः भाई मनीषी! कुछ समय के लिये राजभवन में रहना ही मेरे लिये उचित है । लोग बाल की घटना को भूल न जायं तब तक बाहर निकलना मुझे अच्छा नहीं लगता । [१०-१३]
मनीषी-जैसा तुझे अच्छा लगे वैसा कर, मुझे उसमें कुछ भी आपत्ति नहीं है । मुझे तो इतना ही कहना है कि इस पापी-मित्र (स्पर्शन) का सम्बन्ध छोड़ दे।
उस दिन से मध्यमबूद्धि महल में ही रहने लगा, बाहर जाना आना बिलकुल बन्द कर दिया। बातचीत समाप्त होने पर मनीषी भी अपने स्थान पर चला गया ।
[१४]
* पृष्ठ १६२
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org