Book Title: Upmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Author(s): Siddharshi Gani, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
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उपमिति-भव-प्रपंच कथा
व्यन्तर-कृत पीड़ा
उसी समय मन्दिर के अधिष्ठायक व्यन्तर ने वहाँ प्रवेश किया। उसने बाल को आकाश-बन्धन से बांध दिया और जमीन पर पछाडा, फिर उसके सारे शरीर में तीव्रतम वेदना उत्पन्न की जिससे वह मरणासन्न हो गया। इस भयंकर प्रसंग को देखकर मध्यमबुद्धि ने हाहाकार किया। 'यह क्या है ?' देखने की इच्छा से बहुत से लोग मन्दिर से शयनकक्ष की तरफ दौड़े आये। व्यन्तर ने धक्के मार कर बाल को शयनकक्ष के बाहर धकेल दिया है और बहुत जोर से जमीन पर पटका, परिणामस्वरूप उसकी आँख की पुतली फट गई और प्रारण कण्ठ में आ गये । सब लोगों ने बाल को उस स्थिति में देखा। उसके पीछे ही दीन मन वाला मध्यम बुद्धि भी शयनकक्ष से बाहर निकला । मध्यमबुद्धि के बाहर आते ही लोग उसे पूछने लगे कि 'यह सब क्या गड़बड़ है ?' पर लज्जावश वह कुछ भी उत्तर नहीं दे सका । उस समय वह व्यन्तर किसी पुरुष के शरीर में प्रविष्ट हुआ और उस पुरुष के द्वारा उसने सब घटना लोगों को कह सुनाई। मकरध्वज के भक्त जो लोग वहाँ उपस्थित थे उन्होंने यह घटना सुनकर बाल को देव का अपमान करने वाला महापापी जानकर उसका अत्यन्त तिरस्कार किया। उसके सम्बन्धी कहने लगे 'अपने कुल को कलंकित करने वाला विषवृक्ष जैसा यह बाल अपने कुल में उत्पन्न हुआ है' ऐसा कहकर वे सब उसकी निन्दा करने लगे । 'अब यह अपने पाप के फल भोगेगा, इसे सजा भुगतनी ही चाहिये ।' ऐसा कहकर सामान्य लोग भी उसकी आलोचना करने लगे । 'जो प्राणी बिना विचारे निन्दनीय काम करते हैं वे सब अनर्थों और दु.खों को सहन करते हैं, इसमें नवीनता भी क्या है ?' ऐसा कहकर विवेकी लोगों ने उसकी उपेक्षा की। उस समय व्यन्तर ने भयंकर रूप धारण कर कहा- तुम्हारे सब के सामने ही इस दुरात्मा बाल के टुकड़े-टुकड़े कर देता हूँ। यह सुनकर मध्यमबुद्धि ने हाहाकार किया और उस पुरुष के पांवों में पड़ गया, जिसके शरीर में व्यन्तर ने प्रवेश किया था। उसने कहा-'अरे! अरे ! कृपा करो, दया करो, मेरे भाई के प्राणों की मैं आप से भिक्षा मांगता हूँ। कृपा कर आप इसे न मारे।' मंध्यमबुद्धि के रुदन से लोगों को भी उस पर दया आई और उन्होंने व्यन्तर से कहा-हे भट्टारक ! इस बेचारे को एक बार क्षमा करदो, फिर से वह देव का अपमान कभी नहीं करेगा। मध्यमबुद्धि पर करुणा लाकर और लोगों के कहने से उस समय व्यन्तर ने बाल को छोड़ दिया। थोड़ी देर बाद जब बाल के शरीर में चेतना आई, शरीर पर घाव लगने से चमड़ी कठोर हो गई थी वह नरम होने लगी और कुछ स्फूर्ति आई तब मध्यमबुद्धि उसे शीघ्रता पूर्वक मन्दिर से बाहर ले आया और बड़ी कठिनता से उसे राजमहल में ले गया।
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