Book Title: Upmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Author(s): Siddharshi Gani, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
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उपमिति-भव-प्रपंच कथा
भी आसक्त होने लगा और लोलुपता पूर्वक उनके साथ भोग भोगने लगा। इस प्रकार सत्कार्य के विरुद्ध चलने वाले बाल को अकार्य में ही प्रवृत्त देखकर लोग उसकी निन्दा करने लगे और उसके मुंह पर ही उसे पापो, मूर्ख, अज्ञानी, निलज्ज, निर्भागी, कुल-कलंकी आदि कहने लगे। लोगों की निन्दा की उपेक्षा कर बाल तो यही मानता कि वह माताजी और स्पर्शन की कृपा से सुख-सागर में गोते लगा रहा है। लोगों को जो बोलना हो बोलते रहें, इनके कहने की चिन्ता क्यों करू ?
अकुशलमाला भी कभी-कभी उसके शरीर से बाहर आकर उससे पूछ लेती कि उसकी अद्भुत योगशक्ति का उस पर कैसा प्रभाव हुआ ? तब बाल कहता--माताजी ! इसमें किसी प्रकार का संदेह नहीं है कि आपने मुझ पर बहुत बड़ा उपकार किया है, मुझे सुखसागर में सराबोर कर दिया है। माताजी! अब मेरी प्रार्थना है कि आप कृपा करके जीवन पर्यन्त मेरे शरीर का त्याग न करें। अकुशलमाला ने यह स्वीकार किया और कहा-वत्स ! तुझे यह रुचिकर है तो दूसरे सब काम छोड़कर मैं तेरा ही काम करूंगी। माता को अपने अधीन देखकर बाल मन में फूला न समाया । वह सोचने लगा-- 'स्पर्शन तो मेरे वश में है ही, कार्य-साधक समस्त सामग्री मेरे अनुकूल है ही। अहो ! इस संसार में मेरे जैसा भाग्यशाली, मेरे जैसा सुखी अन्य कोई शायद ही होगा' ऐसे विचारों से वह अत्यधिक प्रफुल्लित होकर अधिक कुव्यसनी बनता गया। [२१-३५] मध्यमबुद्धि का परामर्श
___ बाल के उपरोक्त चाल-चलन से राज्य भर में उसकी बहत निन्दा हो रही थी अतः लोक-निन्दा से डरने वाले मध्यमबुद्धि ने स्नेह-विव्हल होकर एक दिन प्रेम से उसे समझाया--भाई बाल ! तेरा इस प्रकार का लोक-विरुद्ध आचरण किसी भी प्रकार उचित नहीं है। त्याग करने योग्य अयोग्य वस्तुओं का उपभोग करना अति निन्दनीय, पाप से परिपूर्ण और कुल को कलंक लगाने वाला है। बाल ने उत्तर दिया--भाई मध्यमबुद्धि ! ऐसा लगता है कि तुझे मनीषी ने ठगा है. अन्यथा स्वर्ग के जैसे उत्तम सुख भोगने वाले मुझ को क्या तू नहीं देखता? जो मूर्ख प्राणी जाति-दोष के कारण किसी सुन्दर स्त्री आदि का त्याग करते हैं वे ऐसे ही हैं जैसे जो दूषित स्थान में पड़े होने के कारण महारत्न का त्याग करते हैं। उसका उत्तर सुनकर मध्यमबुद्धि अपने मन में सोचने लगा कि यह बाल उपदेश (शिक्षा) के अयोग्य है, इसे किसी प्रकार की शिक्षा देना व्यर्थ है। मैं व्यर्थ ही वाक्परिश्रम कर रहा हूँ। इस प्रकार बाल, मध्यमबुद्धि और मनीषी सुख-पूर्वक अपना समय बिता रहे थे । * [३६-४१] वसन्त ऋतु का आगमन
___ अन्यदा काम को उत्तेजित करने वाली वसन्त ऋतु का समय आ गया । * पृष्ठ १८१
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