________________
उपमिति-भव-प्रपंच कथा
है, धनहरण और स्वजनमरण आदि देखता हुअा भी नहीं देखता है, विचक्षण बुद्धिमान होने पर भी जडमूर्ख की तरह चेष्टा करता है और समस्त शास्त्रार्थविशारद होने पर भी महामूर्ख शिरोमरिण की तरह आचरण करता है । फलस्वरूप इस जीव को स्वच्छन्दचारिता प्रिय होती है, इच्छानुसार चेष्टा (आचरण) करना अच्छा लगता है और व्रत, नियम रूपी नियन्त्रणों से घबराता है। अधिक क्या कहें ? मौका पड़ने पर कौए का मांस खाने से भी नहीं चूकता । भोजन लेने का आग्रह
कथा प्रसंग में पहले कह चुके हैं:- "उसे इस स्थिति में देखकर और उसके मन के प्राशय को समझ कर धर्मबोधकर ने कहा-- अरे मूर्ख द्रमुक ! तेरा यह कैसा विचित्र व्यवहार है ? यह कन्या तुझे परमान्न का भोजन दे रही है, क्या तू देखता नहीं ? इस दुनियां में पापी भिखारी तो बहुत होंगे, पर मैं निश्चयपूर्वक कह सकता हूँ कि तेरे जैसा निर्भागी तो शायद ही कोई दूसरा हो ! क्योंकि तू अपने तुच्छ भोजन पर इतना आसक्त है । मैं ऐसा अमृतमय परमान्न भोजन तुझे दिलवा रहा हूँ फिर भी तू अपनी प्राकुलता को त्यागकर उसे नहीं लेता। तुझे एक दूसरी बात कहूँ... इस राजभवन के बाहर अनेक दुःखी प्राणी रहते हैं पर उनको न तो इस भवन को देखकर आनन्द हुआ और न उन पर हमारे महाराज की कृपा-दृष्टि ही हई, जिससे हमारा उनके प्रति आदर भाव नहीं रहता, हम उनसे बात भी नहीं करते । पर, तुझे तो इस राजभवन को देखकर आनन्द हुआ और हमीर महाराज की तुझ पर कृपा-दृष्टि हुई, इसीलिये हम तेरा इतना आदर कर रहे हैं । अपने स्वामी को जो प्रिय हो, वही प्रिय कार्य स्वामीभक्त सेवक को करना चाहिये । इसी न्याय (विचार) से हम तुझ पर विशेष दयालु हुए हैं । हमें यह पूर्ण विश्वास था कि हमारे राजा योग्य पात्र (व्यक्ति) पर ही अपनी कृपादृष्टि डालते हैं, कोई मूढ (मूख) उनके लक्ष्य में नहीं आता। यह विश्वास भी आज तूने गलत सिद्ध कर दिया है। तेरे अत्यन्त तुच्छ भोजन पर तेरा मन चिपका हुआ है, जिससे तू इतना सुन्दर अमृत तुल्य भोजन भी नहीं लेता। यह भोजन सर्व-रोग नाशक, मधुर, और स्वादिष्ट है। इसे तू किसलिये नहीं ले रहा है ? अरे दुर्वद्धि द्रमुक ! अपने पास के इस कुभोजन का त्याग कर और विशेष रूप से इस सुन्दर स्वादिष्ट भोजन को ग्रहण कर; जिसके प्रताप से इस राजभवन में रहने वाले प्राणी आनन्द कर रहे हैं. उसके माहात्म्य को तू देख ।" धर्मबोधकर के समान ही यहाँ सद्गुरु भी जीव के साथ इसी प्रकार आचरण करते हैं । तुलना कीजिए--- सद्गुरु का स्नेहमिश्रित क्रोध
जब यह जीव सम्यग् ज्ञान-दर्शन उत्पन्न होने पर भी कर्म-परतन्त्रता के कारण नाममात्र की भी विरति (त्याग) नहीं करता है तब प्राचार्यदेव उसकी ऐसी अवस्था
* पृष्ठ ७७
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org