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उपमिति-भव-प्रपंच कथा
राजा से उनको पुत्री क्षान्ति कुमारी को हमारे कुमार के लिये मांगने का प्रबन्ध करिये।
मतिधन जैसी महाराज की आज्ञा ।
मतिधन बाहर जाने का उपक्रम कर ही रहा था तभी जिनमतज्ञ नैमित्तिक ने कहा-महाराज ! इस प्रकार जाने की आवश्यकता नहीं है। चित्तसौन्दर्य नगर में इस प्रकार नहीं जाया जा सकता।
पद्म राजा-ऐसा क्यों आर्य ?
जिनमतज्ञ - नगर, राज, स्त्री, पुत्र, मित्र आदि इस लोक की समस्त वस्तुएं दो प्रकार की होती हैं- अन्तरंग और बहिरंग। इनमें से जो बहिरंग वस्तुएँ हैं उनमें आपका गमनागमन हो सकता है और आपका आदेश आदि व्यापार चल सकता है, परन्तु अन्तरंग वस्तुओं के सम्बन्ध में ऐसा नहीं हो सकता । मैंने जिस नगर, राजा, रानी और उनकी पुत्री का वर्णन किया है वे सभी अन्तरंग वस्तुएँ हैं, इसीलिये वहाँ आपका दूत नहीं पहुँच सकता।
राजा - आर्य ! तब वहाँ जाने में कौन समर्थ है ?
जिनमतज्ञ-महाराज ! जो अन्तरंग राजा हो वही यह कार्य कर सकता है।
राजा-आर्य ! वह राजा कौन है ? अन्तरंग और बहिरंग तन्त्र
जिनमतज्ञ-महाराज ! उस अन्तरंग राजा का नाम कर्मपरिणाम है । उस कर्मपरिणाम राजा ने यह चित्तसौन्दर्य नगर शुभपरिणाम राजा को पारितोषिक में दिया है इसलिये शुभपरिणाम स्वयं कर्मपरिणाम के वशवर्ती रहता है।
राजा - आर्य ! क्या ये कर्मपरिणाम महाराजा मेरी प्रार्थना सुनेंगे?
जिनमतज्ञ-महाराज ! यह कर्मपरिणाम राजा कभी किसी की प्रार्थना नहीं सुनता। अधिकांश में वह अपनी इच्छानुसार ही कार्य करता है । सत्पुरुष उसकी प्रार्थना करें इसकी वह अपेक्षा भी नहीं रखता। उसके समक्ष विवेकपूर्ण वचन कहने से भी वह कभी नहीं रीझता। अन्य प्राणियों के आग्रह से वह नहीं भूकता और किसी के दुःख को देखकर वह दया नहीं करता। उसे जब कुछ कार्य करने की इच्छा होती है तब वह अपनी बड़ी बहिन लोकस्थिति से परामर्श लेता है, अपनी स्त्री कालपरिणति के साथ वह उस कार्य के सम्बन्ध में विचार करता है और अपने मित्र स्वभाव के साथ इस सम्बन्ध में बात करता है। इसी नंदिवर्धन
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