Book Title: Upmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Author(s): Siddharshi Gani, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
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प्रस्ताव ३ : स्पर्शन-मूलशुद्धि
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महाराजा ने कहा-मित्र ! तेरी बात सच्ची है, पर अपने लोगों को पीडित कर इस पापी सन्तोष ने मुझे बहुत उद्वेलित किया है, अतः जब तक मैं उसे जड़ से उखाड न फेंकू तब तक मुझे शान्ति नहीं मिलेगी।
___ मंत्री ने कहा- देव ! यह तो छोटी-सी बात है। इसके लिये आपको इतने ग्रावेश में नहीं आना चाहिो ! आवेश का त्याग कीजिये।
___मंत्री की बात सुनकर रागकेसरी राजा कुछ स्वस्थ हुआ, फिर विजय प्राप्त करने के लिये युद्ध के अनुरूप कार्यवाही की गई। अपने समीप स्नेहजल से पूरित प्रेमबन्ध नामक स्वर्ण कलश स्थापित करवाया, केलिजल्प नामक आनन्द क्रीडा का जयघोष करवाया, चाटुकारिता-पूर्ण मंगल गीत गवाये और रतिकलह नामक उद्दाम बाजे बजवाये। अपने शरीर पर चन्दन का लेप कर, आभूषण धारण कर राजा रथ पर चढने को तैयार हुआ तब स्मरण पाया कि, अरे ! इस विषय में मैंने अभी तक पिताजी से तो पूछा ही नहीं। यह मेरी कितनी बड़ी भूल है, कितना आलस्य है, कितना अविनय है ! यद्यपि यह छोटी-सी बात है, फिर भी मैं इतना व्याकुल हो गया कि पिताजी को नमन करना भी भूल गया ! इस प्रकार विचार करते हुए राजा पिताजी को नमन करने गया। रागकेसरी के पिता महामोह
विपाक के इतना कहने पर मैंने पूछा-हे भद्र ! इस रागकेसरी राजा का पिता भी है ? वह कौन है ? विपाक ने कहा-भाई प्रभाव ! तू तो बहुत भोला है। क्या तू इतना भी नहीं जानता कि इस महाराजा का पिता महामोह है जो अद्भुत कामों का करने वाला और त्रिलोक में प्रसिद्ध है, उसका तुझे पता नहीं ? तू तो अनोखी बात करता है । अरे ! स्त्रियाँ और बच्चे भी इसको जानते हैं । सुन
यह महामोह सम्पूर्ण जगत को लीला मात्र से घुमाता रहता है। बड़ेबड़े चक्रवर्ती और इन्द्र भी इसके सेवक होकर रहते हैं। अपनी वीरता के दर्प में जो लोग अन्य सब की आज्ञा का उल्लंघन करते रहते हैं वे भी महामोह की आज्ञा का तनिक भी उल्लंघन नहीं कर सकते ।* वेदान्तवादियों के सिद्धान्त में जैसे परमात्मा को चराचर (स्थावर और जंगम) जगत में व्यापक कहा गया है वैसे ही महामोह अपने वीर्य (पराक्रम) से राग-द्वेष आदि रूपों के द्वारा समस्त लोकों में व्याप्त है। जैसे वेदान्त में कहा है कि समस्त जीव परमात्मा से ही उत्पन्न होते हैं और उसी में लय हो जाते हैं वैसे ही मद आदि महामोह से ही प्रवर्तित होते हैं और उसी में समा जाते हैं । परमार्थ को जानने वाले और सन्तोषजन्य वास्तविक सुख को जानने वाले प्राणी भी इन्द्रियों के सुख में ललचा जाते हैं, यह सब महामोह का प्रताप है । समग्र शास्त्रों का अध्ययन कर जो अपने को पण्डित मानते हैं, ऐसे लोग भी विषयों में आसक्त हो जाते हैं इस सब का कारण भो महामोह ही है। जैनेन्द्र-मत के तत्त्वज्ञ प्राणो * पृष्ठ १६१
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