Book Title: Upmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Author(s): Siddharshi Gani, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
View full book text
________________
प्रस्ताव ३ : मध्यम बुद्धि
२३३
मनोवृत्तियों की अनियन्त्रित चपलता और भवितव्यता के वशीभूत होने से कालज्ञ को कुटिला मानवी पर और विचक्षरणा व्यन्तरी को मुग्धकुमार पर तीव्र अनुराग उत्पन्न हुआ ।
कालज्ञ की युक्ति
अपनी व्यन्तरी को धोखा देकर प्रच्छन्न रूप से इच्छित कार्य करने की दृष्टि से कालज्ञ व्यन्तर ने अपनी स्त्री विचक्षणा से कहा- देवि ! तुम थोड़ी आगे चलो, प्रभु भक्ति के लिये कुछ पुष्प इस राज उद्यान से चुनकर मैं आ रहा हूँ । विचक्षणा का मन भी मुग्धकुमार ने हरण कर रखा था जिससे वह मौन रही । कालज्ञ व्यन्तर बगीचे में जहाँ प्रकुटिला पुष्प चुन रही थी वहीं गहरी झाड़ी वाले प्रदेश में नीचे उतरा और विचक्षणा व्यन्तरी की दृष्टि से ओझल हो गया । तदनन्तर कालज्ञ ने विचार किया कि, अरे ! यह मनुष्य-दम्पति किसलिये एक दूसरे से दूर-दूर फिर रहे हैं इसका पता लगाना चाहिये । फिर उसने विभंग- ज्ञान का उपयोग किया जिससे उसे मालूम हो गया कि वे एक दूसरे से दूर क्यों हैं । प्रकुटिला को वश में करने का यही एकमात्र उपाय समझ कर उसने तुरन्त मुग्धकुमार का वैक्रिय रूप धारण कर लिया, हाथ में सोने की टोकरी ले ली, उसमें फूल भर लिये और कुटिला के पास जाकर एकाएक बोला- प्रिये ! मैं तो तेरे से जीत गया हूँ, तू हार गई । 'ओह ! आर्यपुत्र तो बहुत जल्दी आ गये और मुझ पर विजय प्राप्त कर 'ली' इस विचार से अकुटिला कुछ खिन्न हुई । उसकी खिन्नता को देखकर मुग्धकुमार रूपधारी व्यन्तर ने कहा- प्रिये ! रुष्ट होने की क्या बात है, यह तो साधारण बात है । अब हमने बहुत से पुष्प एकत्रित कर लिये हैं, अतः चलो, पास के कदलीगृह में चलें । देखो यह कदलीगृह कितना सुन्दर है । यह ता सम्पूर्ण उद्यान का आभूषण
1
1
है । बेचारी भोली-भाली प्रकुटिला कुछ विशेष जानती न थी इसलिये वास्तविकता के अज्ञान में उसने सब कुछ स्वीकार किया । वहाँ से मुग्धकुमार रूपी व्यन्तर और कुटिला कदलीगृह में गये और वहाँ केले के पतों की शय्या बनाकर आमोदप्रमोद करने लगे ।
विचक्षरणा का रूप परिवर्तन
इधर विचक्षरणा व्यन्तरी ने आकाश में ही सोचा, अरे ! मेरा पति कालज्ञ तो अभी तक पृथ्वी पर है, वह वापिस आये और उस मनुष्य की स्त्री अपने पति से दूर रहे तब तक रति-रहित कामदेव के समान उस पुरुष को मना-समझा कर रिझाकर, मान देकर उसके साथ अपना जन्म सफल करूँ । यह मनुष्य - दम्पति एक दूसरे से अलग क्यों हु हैं, इसका पता उसने भी विभंग ज्ञान के उपयोग से लगा लिया और तुरन्त स्वयं अकुटिला का वैक्रिय रूप धारण कर, हाथ में सोने की टोकरी फूलों से भरकर मुग्धकुमार के पास आई और जोर से हँसते हुए बोली - ' प्रार्यपुत्र ! मैं तुम्हें जीत लिया है, तुम हार गये ।' मुग्धकुमार ने तनिक चकित होते हुए सामने * पृष्ठ १७१
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org