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उपमिति-भव-प्रपंच कथा
मनीषी का गूढ उत्तर
फिर स्पर्शन मनीषी के पास गया और बोला--मित्र! तुम्हारी इच्छित वस्तु प्राप्त कराने में मेरा प्रयास सफल हुआ या नहीं ? मनीषी ने उत्तर दिया--'अरे भाई ! इस विषय में अधिक क्या कहूँ तेरी शक्ति तो इतनी अधिक है कि वाणी से उसका वर्णन नहीं कर सकता।' ऐसा गूढ उत्तर सुनकर स्पर्शन ने । अपने मन में विचार किया कि, अरे यह जो कुछ कह रहा है उसमें कुछ गहरा भेद है। यह मनीषी वास्तव में दुष्ट है। मेरे जैसा व्यक्ति किसी भी प्रकार से इसका मनोरंजन नहीं कर सकता। ऐसा लगता है कि मेरे वास्तविक स्वरूप को यह जान गया है, अतः यहाँ तो मर्यादा में रहना ही अच्छा है, इस सम्बन्ध में इससे अधिक बात करना श्रेयस्कर नहीं है। मन में ऐसा सोचते हुए स्पर्शन ने धूर्त मनुष्य की भांति शब्द-ध्वनि की (सीटी बजाई) और उसने अपने हाव-भाव से किसी प्रकार के विपरीत भाव को प्रकट नहीं होने दिया तथा मौन धारण कर लिया। अकुशलमाला की प्रेरणा
बाल ने अपनी माता अकुशलमाला के पास जाकर.स्पर्शन की योगशक्ति का सम्पूर्ण वर्णन किया। स्पर्शन ने किस प्रकार उसे सुख प्राप्त करवाया और उसमें कितनी अधिक शक्ति है, इसका उल्लेख किया। यह सब सुनकर अकुशलमाला ने कहा-पुत्र ! मैंने तो पहले ही तुझे कहा था कि तेरी इस स्पर्शन के साथ मित्रता हुई है, यह बहुत अच्छा हुआ। यह मित्रता तेरे लिये सुख की परम्परा का कारण बनेगी। मुझ में भी ऐसी योगशक्ति है जिसका परिचय में फिर कभी तुझे दूंगी।
यह नई बात सुनकर बाल ने कहा--यदि ऐसा है तो माताजी ! अभी तुरन्त ही यह कुतूहल दिखाइये, मेरा आपसे यही आग्रह है।
अकुशलमाला ने कहा--जब मैं अपनी योगशक्ति का प्रयोग करूंगी तब तुझे इस सम्बन्ध में सब कुछ बताऊँगी। शुभसुन्दरी का परामर्श
जिस प्रकार बाल ने अपनी माता को स्पर्शन सम्बन्धी सब बात कही उसी प्रकार मनीषी ने भी अपनी माता शुभसुन्दरी को स्पर्शन का सब वृत्तान्त कहा । सुनकर शुभसुन्दरी ने कहा-वत्स ! इस पापी-मित्र के साथ तू किसी भी प्रकार का सम्बन्ध रखे, यह मुझे अच्छा नहीं लगता; क्योंकि परम्परा से भी स्पर्शन का परिचय प्राप्त करने वाले को अनेक दुःख प्राप्त होते हैं।
मनीषी-- माताजी ! आप का कहना उचित है, पर आप इस सम्बन्ध में तनिक भी चिन्ता न करें। मैं इस स्पर्शन के वास्तविक स्वरूप को पहचान गया हूँ। वह मुझे वश में करने के अनेक उपाय करता रहता है, किन्तु वह मुझे ठग नहीं सकता। मात्र अभी मैं उसका त्याग नहीं कर रहा हूँ, पर त्याग के लिये योग्य
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