Book Title: Upmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Author(s): Siddharshi Gani, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
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उपमिति-भव-प्रपंच कथा वैसी ही इच्छा मनीषी की भी है या नहीं ? यह जानने के लिये उसने उससे प्रश्न किया)। मनीषी को भी क्या और कैसे होता है यह जानने का कुतूहल था, अतः उसने कहा-मित्र ! बाल ने तुम्हें जिस प्रकार करने को कहा है, वैसा ही करो। इसमें विचार करने जैसा या विरोध प्रकट करने जैसा क्या है ? योग-शक्ति का प्रयोग
मनीषी का उत्तर सुनकर स्पर्शन ने पद्मासन लगाया, शरीर को स्थिर किया, मन के विक्षेप को बाह्याकर्षण से मुक्त किया, दृष्टि को निश्चल कर नासिका के अग्रभाग पर स्थिर किया, मन को हृदय-कमल पर स्थिर किया, धारणा को स्थिर किया, जिस विषय पर ध्यान करना था उस पर एकाग्र हुआ, इन्द्रियों की समस्त वृत्तियों का निरोध किया, स्वयं स्वरूप-शून्य की भांति बन गया, समाधि धारण की, अन्तान के लिये आवश्यक प्रात्मसंयम को प्रकटाकर अदृश्य हो गया तथा मनीषी और बाल के शरीर में प्रवेश कर उनके शरीर का जो प्रदेश उसको अधिक रुचिकर था उसमें स्थित हुआ। उस समय बाल और मनीषी को अपने मन में अत्यन्त नवीनता का अनुभव हुआ और दोनों के मन में कोमल स्पर्श को प्राप्त करने की इच्छा जागृत हुई। योग-शक्ति का बाल पर प्रभाव
जब स्पर्शन ने अपनी योग-शक्ति के बल से बाल के शरीर में प्रवेश किया तब वह मृदु शय्या, सुन्दर आरामदायक कोमल वस्त्र, हाड़-मांस औ. त्वचा को सुख देने वाले मर्दन, सुन्दर ललित ललनायों के साथ अनवरत रतिक्रिया, ऋतु से विपरीत परिणाम उत्पन्न करने वाले विलेपन, शरीर को प्रिय लगने वाले सर्व प्रकार के स्नान और उद्वर्तन (पीठी) आदि स्पर्शनप्रिय पदार्थों में प्रासक्त हो गया। जैसे भस्मक व्याधि वाले को जितना भो खाने को दें वह सब खा जाता है वैसे ही स्पर्शन के वशीभूत बाल कोमल शय्या आदि सब वस्तुमों को अतृप्ति पूर्वक प्रचुरता से भोगने लगा। बेचारा बाल कोमल स्पर्श के विषय-सुख में विकल होकर इतना फंस गया कि अनेक प्रकार के प्रबन्धों के होते हुए भी उसके मन को थोड़ा भी सन्तोष प्राप्त नहीं होता, जिसके परिणाम स्वरूप उसकी मन की शांति ही नष्ट हो गई। जैसे खुजली वाले प्राणी को खुजलाने में ऊपर-ऊपर से प्रानन्द मिलता है किन्तु अन्त में उससे उसके शरीर को कष्ट ही मिलता है वैसी ही स्थिति उसकी भी हो गई थी। किन्तु शुद्ध विचारों के अभाव में और वस्तु-स्थिति की अनभिज्ञता के कारण जब-जब वह सुन्दर शय्या आदि का उपभोग करता तब-तब वह सोचता कि, 'अहा ! कितना सुन्दर सुख है ! अहा ! मुझे कितना आनन्द प्राप्त हो रहा है' ऐसे मिथ्या विचारों से मन में फूल कर कुप्पा हो जाता और आँखें मूदकर, विपरीत भावों के कारण स्वयं परम सुख भोग रहा हो, ऐसा मानकर व्यर्थ ही विपरीत रस में अवगाहन करता और सुख में लीन हो जाता। * पृष्ठ १६६
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