Book Title: Upmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Author(s): Siddharshi Gani, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
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प्रस्ताव ३ : स्पर्शन- मूलशुद्धि
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भौंहें थी । अविद्या नामक सूखी लकडी जैसा कम्पमान और वृद्धावस्था से जीर्ण-शीर्ण उनका शरीर दिखाई देता था । तृष्णा नामक वेदी पर बिछाये हुए विपर्यास नामक आसन पर वे बैठे थे ।
रागकेसरी ने अपने हाथ और मस्तक से भूमि का स्पर्श करते हुए पिता के पाँवों में नमस्कार किया चरण-स्पर्श किया । पिता महामोह ने उसे श्राशीष दी और वह उनके पास धरती पर बैठ गया । पिता ने उसे आसन दिलवाया। पिता के प्रेमवचन से राजा श्रासन पर बैठा । फिर अपने पिता के कुशल समाचार पूछे और वहाँ श्राने का कारण बताया । पिता ने सब बातें सुनीं और कहा
महामोह - पुत्र ! जीर्ण वस्त्र की भांति अब मेरे जीवन का अन्तिम शेष भाग बचा है । जैसे खुजली वाले हाथी से जितना अधिक काम लिया जा सके उतना ही अच्छा है वैसे ही मेरे बोरडी के ठूंठ जैसे शरीर से जितना काम लिया जा सके उतना ही ठीक है । अत: जब तक मैं जीवित हूँ तब तक तुझे लड़ाई में जाने की
वश्यकता नहीं है। तू अपना यह विस्तृत राज्य संभाल और बिना किसी शंका के राज्य का पालन कर । तेरे प्रस्थान का जो प्रस्तुत प्रयोजन है उसे मैं पूर्ण कर दूँगा ।
रागकेसरी - ( दोनों कान बन्द कर ) पिताजी ! आप ऐसा नहीं बोलें, ऐसी बात न करें, पाप शान्त हों और सब अमंगल दूर हों । आपका शरीर अनन्त काल तक स्थायी रहे । आपके शरीर को किसी प्रकार की बाधा - पीडा न हो इसी में आनन्द मानने वाला मैं आपका दास हूँ । अतः ऐसे कार्य में ग्राप मुझे ही प्रयुक्त करें । इस विषय में आपसे अधिक क्या कहूँ ? मैं शत्रु को पराजित करने जा रहा हूँ, आप मुझे श्राज्ञा दें ।
महामोह - पुत्र ! इस बार तो मुझे ही जाना पड़ेगा । तुझे तो मैं यहीं राज्य में रहने की आज्ञा देता हूँ ।
इतना कहकर महामोह राजा खड़े हो गये । पिता का इस सम्बन्ध में इतना हढ़ आग्रह देखकर रागकेसरी ने कहा - पिता श्री ! यदि आपकी ऐसी ही इच्छा और आज्ञा है तो फिर मैं आपके साथ तो चलूँगा ही । इस सम्बन्ध में आप मुझे मत रोकियेगा ।
महामोह - वत्स ! ठीक है, ऐसा कर सकते हो। मैं भी तुम्हारा विरह एक क्षण भी सहन नहीं कर सकता । पर, यह बहुत बड़ा और दुष्कर कार्य होने से मैंने अकेले ही जाने का सोचा था । खैर, तूने साथ में चलने की इच्छा व्यक्त की यह उत्तम ही है ।
रागकेसरी - आपकी बड़ी कृपा । *
* पृष्ठ १६३
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