Book Title: Upmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Author(s): Siddharshi Gani, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
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उपमिति-भव-प्रपंच कथा शुभपरिणाम राजा
इस नगर में सकल प्राणियों का हितकारक, दुष्ट-दलन में विशेष प्रयास करने वाला, सज्जन मनुष्यों के रक्षण में विशेष ध्यान देने वाला और कोष तथा दण्ड देने की दक्षता से परिपूर्ण शुभपरिणाम नामक राजा राज्य करता है।
वहाँ के निवासियों के चित्त में होने वाले सभी प्रकार के संतापों को वह राजा शांत करता है और उससे किञ्चित् भी सम्बन्ध रखने वाले प्राणियों को भी अत्यधिक आनन्द प्रदान करता है तथा जगत् के सर्व प्राणियों को सत्कार्यों की ओर प्रवृत्त करता है । इसलिये विद्वान् उसे समस्त लोगों का हितकारक कहते हैं।
[१-२] राग, द्वेष, मोह, क्रोध, लोभ, मद, भ्रम, काम, ईर्ष्या, शोक, दैन्य आदि दुःख देने वाले भावों को और जो अपनी दुष्चेष्टाओं से बारम्बार लोगों को संताप देते हैं, उन सब को यह राजा जड़-मूल से उखाड़ फेंकने वाला है और इस विषय में वह सर्वदा सावधान रहता है। [३-४]
ज्ञान, वैराग्य, संतोष, त्याग, संयम, सौजन्य प्रादि मनुष्य मात्र को आह्लादित करने वाले गुरणों और मान्य पुरुषों द्वारा सम्मत ऐसे अन्य गुरगों का परिपालन करने में यह राजा सर्वदा तत्पर रहता है। इस कार्य को यह राजा अन्य सभी कार्यों की अपेक्षा अधिक मनोयोग से करता है। [५-६]
महाराजा का भण्डार बुद्धि, धैर्य, स्मृति, संवेग, समता आदि गुणरत्नों से प्रतिक्षण बढता रहता है। रथ, हाथी, अश्व और पैदल चार प्रकार की सेना से रक्षित अन्य राजाओं के समान इसने दान, शील, तप और भावरूपी चार प्रकार की सेना से अपने राज्य-दण्ड का निरन्तर विस्तार किया है। [७-८]
___ इसीलिये इस राजा को दुष्टों का निग्रह करने वाला, शिष्टों का परिपालक और कोष तथा दण्ड से समृद्ध कहा गया है। [३] निष्प्रकम्पता रानी
इस महाराजा की निष्प्रकम्पता नामक महारानी है। वह अद्वितीय शारीरिक सौन्दर्य से विजय-ध्वज धारण करने वाली, कला-कौशल से त्रिभूवन में विजय प्राप्त करने वाली, नाना प्रकार के विलासों से कामदेव की प्रिया रति के विभ्रमों को तिरस्कृत करने वाली और अपनी पति-भक्ति से अरुन्धती के माहात्म्य को भी पीछे छोड़ देने वाली है।
देवता, असुर और मनुष्यों की स्त्रियों में सब से सुन्दर स्त्रियाँ अपने शरीर पर सून्दर वस्त्राभूषण पहनकर साधु-समुदाय को विचलित करने का सामहिक प्रयत्न करें और दूसरी तरफ अकेली निष्प्रकम्पता को रखा जाय तो उनका * पृष्ठ १४८
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