Book Title: Upmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Author(s): Siddharshi Gani, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
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उपमिति-भव-प्रपंच कथा
समान समझे। अनिच्छापूर्वक मन्द संवेग के कारण ग्रहण किये हुए व्रत भी इस भव या परभव में अवश्य ही धन-विषयादि के साधनों की अभिवृद्धि करते ही हैं । इस कथन को सुन्दर भोजन की मिलावट से उच्छिष्ट भोजन की बढ़ोत्तरी के सदृश समझे। मन्द संवेग द्वारा गृहीत व्रत-नियमों के प्रभाव से प्राप्त हए धन-विषयादि का अनवरत उपभोग करते रहने पर भी व्रत-नियमों में दृढ़ होने के कारण धनविषयादि सामग्री समाप्त नहीं होती। अर्थात् जैसे-जैसे धन-विषयादि सामग्री का उपभोग करता रहता है वैसे-वैसे व्रत-नियमों के प्रभाव से अन्य सामग्रियाँ प्राप्त होती जाती हैं। यह जीव तो मनुष्य भव अथवा देव भव में अपनी सम्पत्ति की निरन्तर वृद्धि देखकर हर्षित हो जाता है परन्तु यह पामर जीव यह नहीं सोचता कि ये धनादि सामग्री तो धर्म के प्रभाव से ही प्राप्त होती है, इसमें हर्ष करने जैसा क्या है ? वस्तुतः यह तो धर्म के प्रभाव से ही बढ़ती है, तो धर्म-सम्पादन ही युक्त है। वस्तु-स्थिति का ज्ञान न होने से यह जीव विषयादि में अनुरक्त होकर ज्ञान, दर्शन और देशविरति चारित्र की आराधना में शिथिल हो जाता है। जानता हुआ भी अनजान की तरह मोहदोष के कारण अपना समय निरर्थक ही खो देता है। इस प्रकार जहाँ तक इस जीव का मन धनादि में चिपका हुआ रहता है और धर्मानुष्ठान की ओर कम आदर रहता है वहाँ तक चाहे जितना भी काल व्यर्थ में बिता दे परन्तु उसके रागादि भावरोगों का नाश नहीं होता। सद्गुरु के अनुग्रह से मन्द संवेग होने पर भी यदि यह जीव अल्प मात्रा में भी धर्मानुष्ठान करता है तो उसे गुणों की प्राप्ति होती है और उसके भावरोगों का उपशमन होता है।
आत्म-स्वरूप का ज्ञान न होने के कारण जब यह जीव धन-विषयकलत्रादि पर प्रबल अनुराग रखता है, अधिक परिग्रह रखता है, महाजाल के समान वाणिज्य-व्यापार करता है. खेतीबाड़ी करता है और इसी प्रकार के अन्य धन्धे करता है तब राग-द्वषादि भावरोगों को बढ़ने का ठोस अवसर मिल जाता है। जैसे व्याधियों को बढ़ने का दृढ़ कारण मिल जाने से व्याधियाँ बढ़ने लगती है और उससे प्राणी दुःखी होता है वैसे ही ये भावरोग भी बढ़ जाने से अनेक प्रकार के विकारों के प्रभाव से इस जीव को प्रभावित करते हैं। ऐसे समय में अनिच्छा से ग्रहण किये हुए सदनुष्ठान भी इस जीव का बचाव करने में सक्षम नहीं होते । यह जीव कभी अकाल में शूल की पीडा के समान धन-व्यय की चिन्ता से पीडित होता है, कभी दूसरों के प्रति ईर्ष्या की दाह से जलता रहता है, कभी सर्वस्वनाश की कल्पना से मुमुर्दा की तरह मूछित हो जाता है, कभी कामज्वर के सन्ताप से तड़फता रहता है, कभी ऋणदाता द्वारा बलपूर्वक धन ले जाने पर शीत लहर से जड़ीभूत
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