Book Title: Upmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Author(s): Siddharshi Gani, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
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उपमिति भव- प्रपंच कथा
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सूखा हुआ अन्धकार वाला कुप्रा था, जो ऊपर पड़े हुए कचरे और घास से ढंक गया था । भयभ्रान्त होकर वेग से दौड़ने के कारण वह अन्धकूप मुझे दिखाई नहीं दिया और मेरे आगे के दोनों पांव उसमें चले गये । मेरे शरीर के पिछले हिस्से को कुछ सहारा नहीं होने से तथा मेरा शरीर बहुत भारी होने से मैं उस अन्धकूप में गिर पड़ा। गिरने से और शरीर भारी होने से मैं प्रत्यन्त घायल हो गया और मेरा शरीर चूर-चूर हो गया । मैं कुछ देर तो मूर्च्छित रहा, फिर कुछ चेतना ग्राई, पर मैं ऐसा फंसा हुआ था कि मैं अपने शरीर को थोड़ा भी हिला-डुला नहीं सकता था । मेरे सम्पूर्ण शरीर में तीव्र वेदना होने लगी और मुझे पश्चाताप होने लगा | मैं सोचने लगा कि मेरी सेवा करने वाले, चिरकाल से परिचित, उपकार करने वाले, मेरे में अनुरक्त और आज्ञापालक साथियों को आपत्ति में छोड़कर स्वार्थवश अकेला भाग श्राने वाले मेरे जैसे कृतघ्नों को तो यही सजा मिलनी चाहिये । मेरी निर्लज्जता तो देखो ! मुझे कौन यूथाधिपति (मुखिया) कहेगा ? अब पछतावा बेकार है ! जैसा किया वैसा भरना होगा । ऐसे विचारों से मेरे मन में कुछ मध्यस्थता ( सान्त्वना) प्राप्त हुई । ऐसी दशा में मैंने अपनी तीव्र वेदना को सहन करते हुए वहां सात रातें बितायीं ।
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अब भवितव्यता मेरे ऊपर प्रसन्न होकर बोली, 'धन्य ! ग्रार्यपुत्र धन्य तुम्हारे अध्यवसाय (विचार) बहुत सुन्दर हैं । तुमने अत्यधिक कठिन दुःख सहे हैं । तुम्हारी इन चेष्टाओं से अब मैं बहुत प्रसन्न हूँ, इसलिये अब तुझे दूसरे नगर में ले जाऊंगी।' मैंने कहा, 'जैसी देवी की प्राज्ञा । फिर भवितव्यता ने एक सुन्दराकृति पुरुष की ओर इशारा कर कहा, 'हे प्रार्यपुत्र ! मैं तुझ पर प्रसन्न हूँ, अतएव तेरी सहायता के लिये पुण्योदय नामक इस पुरुष को तेरे साथ भेज रही हूँ । अब तू इसके साथ जा ।' मैंने फिर कहा 'जैसी देवी की प्राज्ञा । इस बीच में मेरी पुरानी गोली घिस गई थी अतः भवितव्यता ने मुझे एक दूसरी गोली दी और कहा, 'आर्य पुत्र ! जब तू यहां से जायेगा तब यह पुण्योदय तेरा गुप्त सहोदर और मित्र की भांति प्रच्छन्न रूप से तेरे साथ रहेगा ।'
भव्यपुरुष का मूल प्रश्न : स्पष्टीकरण
संसारी जीव इस प्रकार अपनी कथा सुना रहा था तब भव्यपुरुष ने प्रज्ञाविशाला के कान के पास जाकर पूछा- 'माताजी ! यह पुरुष कौन है ? यह किसकी कथा कह रहा है ? असंव्यवहार आदि नगर कहां है ? यह कौन सी गोली है जिसके एक-एक बार लेने से प्रारणी नये-नये रूप धारण करता है और विविध सुख-दुःख का अनुभव करता है ? एक ही पुरुष इतने अधिक समय तक एक ही स्थान पर कैसे रह सकता हैं ? मनुष्य प्राणी के असम्भव से लगने वाले चिउटी और कृमि जैसे रूप कैसे हो सकते है ? मुझे तो इस चोर की पूरी कथा किसी पागल के
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