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प्रस्ताव ३ : नन्दिवर्धन और वैश्वानर
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कायरपन से पुरुष और परपीडा से धर्म दूषित होता है उसी प्रकार समस्त गुणों का भण्डार कुमार भी वैश्वानर नामक मित्र की संगति से दूषित हुआ है ऐसा मैं समझता हूँ। क्योंकि, सभी कलानों की कुशलता के लिये अलंकार रूप प्रशम (शांति) परमावश्यक है । वैश्वानर पापी मित्र है, अतः जितने समय तक वह कुमार के साथ रहता है उतने समय वह अपनी शक्ति से कुमार के प्रशम (शांति) का नाश करता है । दह वैश्वानर कुमार का महान शत्रु है, परन्तु दुर्भाग्य से महामोह के वशीभूत कुमार उसे अपना बड़ा उपकारी मानता है । कुमार के शांतिरूपी अमृत को इस पापी - मित्र ने नष्ट कर दिया है, अतः उसमें दूसरे कितने भी गुरण क्यों न हों, किन्तु समस्त ज्ञान की सारभूत प्रशम (शांति) के बिना सारे गुण व्यर्थ हैं ।
वैश्वानर के संपर्क से मुक्त करने पर विचार
कलाचार्य की बात सुनकर पद्म राजा को वज्राहत के समान महान दुःख हुआ । थोड़ी देर बाद महाराजा ने विदुर से कहा. हे भद्र ! चन्दन रस के छीटों से शीतल पवन देने वाले इस प्रलावर्त (वस्त्र का पंखा ) को बन्द कर । मुझे बाह्य ताप इस समय कुछ भी पीडा नहीं दे रहा है । तू जाकर तुरन्त कुमार को बुलाकर यहाँ ला । कुमार को मैं स्पष्ट कह दूँगा कि अब से वह पापी - मित्र वैश्वानर की संगति बिल्कुल नहीं करे ताकि इस कारण से मुझे जो दुःसह आन्तरिक ताप हुआ है उसका निवारण हो सके ।
हूँ
विदुर ने पंखा बन्द कर जमीन पर रखा और दोनों हाथ जोड़ सिर झुका कर नमस्कार करते हुए कहा- जैसी महाराज की आज्ञा । परन्तु आपने जो बड़ा कार्य मुझे सौंपा है उसे ध्यान में रखकर, यद्यपि मुझे ग्रापकी आज्ञा के सम्बन्ध में कुछ भी बोलने का अधिकार तो नहीं है, फिर भी नियुक्त परामर्शी के स्थान पर यदि मैं अपना विचार प्रकट करू तो आप उस पर ध्यान देने की कृपा करेंगे और मुझ पर क्रोधित न होंगे ।
पद्म राजा - भद्र ! हितकारी बात कहने वाले पर कौन क्रोध करेगा, तुझे जो कुछ कहना हो निःसंकोच कह ।
समझाकर वैश्वानर का
विदुर- देव ! आप कुमार को यहाँ बुलाकर साथ छुड़वाने की सोच रहे हैं, पर मैंने तो कुमार के अल्प परिचय से ही यह जान लिया है कि कुमार वैश्वानर का अंतरंग मित्र बन चुका है और उसकी संगति छुड़वाने में अभी कोई भी समर्थ नहीं हो सकता । कुमार इस पापी - मित्र को अपना पूर्णरूपेण हितेच्छु समझता है और उसके बिना एक क्षरण भी नहीं रह सकता, क्योंकि वह थोड़ी देर भी दूर रहता है तो कुमार का धैर्य नष्ट हो जाता है और उसे चिन्ता होने लगती है तथा उसके बिना अपने को तृण जैसा तुच्छ समझने • लगता है । अतः यदि आप कुमार से इस पापी - मित्र की संगति छोड़ने के लिये कहेंगे * पृष्ठ १४६
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