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उपमिति भव-प्रपंच कथा
उसने मुझे कहा - कुमार तेरी बात ठीक है, इसमें जरा भी शंका नहीं । यह सब मैं जानता हूँ, फिर भी मेरे समक्ष तुम यह सब बताते हो इसका कारण केवल तुम्हारी कृपा ही है । इस महाप्रसाद (कृपा) का फल ऐसा है कि जो प्रारणी इसे प्राप्त करते हैं वे हर्षाधिक्य में आकर व्यक्त प्रर्थवाली वास्तविकता को भी बार-बार कहते हैं । इसमें कौन सी नवीनता है ! पर, मित्र ! यदि तेरा निर्देश हो तो तेरे प्राणों को भी मैं अक्षय बना दूँ, यही मेरी अभिलाषा है ।
नन्दिवर्धन - यह कैसे कर सकते हो ?
वैश्वानर - मैं कुछ रसायन विद्या भी जानता हूँ ।
नन्दिवर्धन - ऐसी बात है तब मेरे प्राणों को अक्षय कर दो । वैश्वानर -- जैसी कुमार की आज्ञा ।
वैश्वानर का प्रसाद
इसके पश्चात् वैश्वानर ने क्रूरचित नामक बड़े तैयार किये और जब मैं एकान्त में बैठा था तब मेरे पास ले आया और कहा - कुमार ! यह बड़े मैंने अपनी शक्ति से तैयार किये हैं । इसके खाने से अधिक शक्ति प्राप्त होती है, प्राणी की इच्छानुसार आयुष्य लम्बी होती है और जो कुछ इच्छा हो वह भी पूर्ण होती है; अतः इन बड़ों को तुम ग्रहण करो अर्थात् ये बड़े तुम खाओ ।
हमारे बीच बातचीत चल रही थी तभी पार्श्व के कमरे में बैठा हुआ कोई पुरुष मन्द स्वर में बोला - तेरे इच्छित स्थान (नरक) में अब यह उत्पन्न होगा, इसमें क्या सन्देह है ?
इस प्रकार कोई बहुत ही धीमी आवाज से बोला जो मुझे नहीं सुनाई पड़ा, पर वैश्वानर ने उसे सुन लिया और मन में विचार करने लगा - ओह ! मेरी इच्छा पूर्ण होगी । मेरे द्वारा तैयार किये बड़े खाने से यह नन्दिवर्धन महा नरक में जायगा । वहाँ जन्म लेगा और लम्बी आयु पायेगा । इस ध्वनि का अन्य क्या अर्थ हो सकता है ? मुझे तो महानरक का स्थान ही अधिक अभीष्ट है ।' यह बात जानकर मेरे मित्र के मन में संतोष हुआ ।
मैंने कहा -- तेरे जैसा मित्र मेरे अनुकूल होगा तो कौनसी कामना पूर्ण नहीं होगी ?
मेरे वचन सुनकर वैश्वानर द्विगुणित प्रसन्न हुआ | मुझे बड़े दिये, मैंने तुरन्त बड़े ले लिये । फिर उसने कहा - कुमार ! तुम्हें मुझ पर एक और कृपा करनी होगी । जब-जब मैं दूर से तुम्हें संकेत करू तब बिना किसी संकल्प-विकल्प के इनमें से एक बड़ा तुम खा लेना । मैंने हँसते हुए कहा - इस विषय में प्रार्थना करने की क्या आवश्यकता है ? मैं अपने प्रारण, आत्मा, सर्वस्व तुझे सौंप ही चुका हूँ । वैश्वानर - महती कृपा ! मैं अन्तःकरण से कुमार का आभारी हूँ ।
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