Book Title: Upmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Author(s): Siddharshi Gani, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
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प्रस्ताव ३ : नन्दिवर्धन और वैश्वानर पुण्योदय को मानसिक खेद
__ वैश्वानर के साथ मेरी मित्रता को देखकर पुण्योदय नामक मेरा अन्तरंग मित्र जो गुप्तरूप से मेरे साथ आया था मन में अत्यधिक रुष्ट हुा । उसने सोचा, अरे ! वैश्वानर तो मेरा शत्रु है परन्तु यह नन्दिवर्धन वस्तुस्थिति को समझे बिना ही अन्तरंग रूप से साथ रहते हुए भी मेरे अनुराग का तिरस्कार कर, समस्त दोषों का भण्डार और परमार्थतः जो शत्रु है उस वैश्वानर के साथ मैत्री करता है । अथवा इसमें आश्चर्य की क्या बात है ! सत्य ही है -- 'अज्ञानी मूर्ख प्राणी पापी-मित्र के स्वरूप को नहीं समझते, ऐसे मित्र की संगति का परिणाम कितना भयंकर होगा इसे वे नहीं जानते, उसका साथ छोड़ने का सदुपदेश देने वाले की बात का आदर नहीं करते, पापी-मित्र के लिये दूसरे सन्मित्रों का भी त्याग कर देते हैं, पापी-मित्र की संगति के वश होकर वे कुमार्ग पर चल पड़ते हैं। जैसे अन्धे दौड़ते हुए दीवार से जोर की टक्कर खाकर पीछे हटते हैं उसी तरह कुसंगति में पड़े हुए लोगों को जब बहुत अधिक दुर्गति हो जाती है तभी वे कुमार्ग से पीछे हटते हैं, किन्तु दूसरों के उपदेश से नहीं।' यह नन्दिवर्धन कुमार ऐसे पापी-मित्र की संगति करता है, अतः यह भी मूर्ख ही है । अभी मेरे समझाने से या रोकने से क्या फल होगा। भवितव्यता ने मुझे उसके सहचारी के रूप में रहने को कहा है। पूर्व-भव में कुमार जब हाथी था तब इसने माध्यस्थ भाव से बहुत वेदना सही तथा समता पूर्वक निश्चल रहा, उस समय उसने मेरे मन पर अच्छा प्रभाव डाला; अतः यद्यपि यह अभी पापी-मित्र की कुसंगति में पड़ गया है तथापि बिना योग्य अवसर के इसे छोड़ देना उचित नहीं है । ऐसा विचार करते हुए मेरा साथी पुण्योदय यद्यपि मुझ पर क्रोधित हुअा था तब भी पहले की ही भांति छिपकर मेरे साथ रहा । वैश्वानर के साथ प्रीति : मित्रों के साथ असद् व्यवहार
वैश्वानर मेरा अन्तरंग मित्र था। उसके अतिरिक्त भी मेरे कई बहिरंग मित्र थे। उन सभी मित्रों के साथ अनेक प्रकार की क्रीडा करते हए मैं बडा होने लगा । खेल में मेरे से अधिक उम्र के, उच्चकुल के, अधिक पराक्रम वाले लड़के भी वैश्वानर से अधिष्ठित (क्रोधी मुद्रा वाला) होने के कारण मेरे से भय से काँपते थे, मेरे पाँव पड़ते थे, मेरी चाटुकारिता करते थे, मेरे रक्षक बन कर मेरे आगे दौडते थे और मेरे वचनों का तनिक भी अनादर नहीं करते थे। अधिक क्या ! मेरी झलक मात्र से, मेरी परछाई से भी वे डर जाते थे। इस सब का वास्तविक कारण तो गुप्तरूप से मेरे साथ रहने वाला अनन्त शक्तिमान मेरा मित्र पुण्योदय ही था, पर महामोह के वश मुझे ऐसा लगता था कि मुझ से बड़े लडके भी जो मुझ से डरते हैं उसका कारण मेरा अन्तरंग मित्र वैश्वानर ही है। क्योंकि, मेरा वह मित्र जब मुझ पर अधिष्ठित होता है तब अपनी अतुलनीय शक्ति से मेरी तेजस्विता को बढाता है,
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