Book Title: Upmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Author(s): Siddharshi Gani, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
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प्रस्ताव १ : पोठबन्ध
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पास से कुत्सित भोजन का त्याग करवा दिया और पवित्र जल से उस पात्र को स्वच्छ करवाकर, उस पात्र को परमान्न भोजन से भर दिया। जिस दिन यह कार्य सम्पन्न हुआ उस दिन राजमन्दिर में महोत्सव मनाया गया और लोगों की जिह्वा पर आज तक जिसका नाम निष्पुण्यक था उसको आज से सब लोग सपुण्यक के नाम से पहचानने लगे। इसी प्रकार की बातें गृहस्थावस्था में विद्यमान और दोलायमान (डाँवाडोल) बुद्धि वाले इस जीव के साथ भी कई बार घटती हैं। जैसे :विशेष शुद्ध अनुष्ठान
जब यह जीव प्रशम सुख के रस के आस्वादन का अनुभव कर लेता है तब सांसारिक प्रपंचों से विरक्त चित्त वाला होकर भी किसी प्रकार का आश्रय लेकर वह गृहस्थ जीवन में रहता है। वह सर्वत्याग किये बिना ही विशिष्टतर तप और नियमों को धारण कर प्रगति करता रहता है। निष्पुण्यक द्वारा परमान्न का अधिक उपभोग करने के समान ही इस उपनय को समझे। उक्त अवस्था में प्रवृत्ति करने वाला यह जीव अर्थोपार्जन और काम का सेवन करते हुए भी इन कार्यों के प्रति आदर (अनुराग) भाव नहीं रखता; इसे लीलामात्र से खराब भोजन खाने के तुल्य समझे। वैराग्य के प्रसंग
गृहस्थावस्था में रहते हुए यदि कदाचित् भार्या विपरीत आचरण करती हो, पुत्र दुविनीत हो, पुत्री शिष्टाचार का उल्लंघन कर जाए, भगिनी भ्रष्ट आचरण करे, स्वकीय द्रव्य को धर्म कार्यों में व्यय करने पर भाइयों को अरुचिकर प्रतीत हो, माता-पिता दूसरों के सन्मुख आक्रोश व्यक्त करें या शिकायत करें कि यह तो घर-बार की ओर ध्यान भी नहीं देता है, बन्धुवर्ग दुराचारी हो, भृत्यगण आज्ञा का पालन न करते हों, स्वदेह का विविध भाँति से लालन-पालन करने पर भी यह शरीर कृतघ्न मनुष्य की तरह रोगादिक विकारों का प्रदर्शन करे और धन का भंडार बिजली के झबकारे के समान असमय (अल्प समय) में ही नष्ट हो जाता हो, उस समय चारित्र रूप परमान्न का भक्षण कर तृप्त हो जाने से इस जीव को यह प्रतीति होती है कि कुभोजन के समान ही ये समस्त पदार्थ नश्वर हैं; तब संपूर्ण संसार के विस्तार का यथावस्थित स्वरूप उसके मन में प्रतिभासित होता है । संसार स्वरूप का आभास हो जाने से इस जीव का मन संसार से विरक्त हो जाता है और उसके मन में संवेग उत्पन्न होता है। संवेग-पूर्ण मन होने से यह जीव विचार करता है—'अरे ! मुझे परमार्थ का ज्ञान होने पर भी मैं स्वकीय जीवन के हितकारी कार्यों को छोड़कर * अभी तक भी गृही-जीवन में रह रहा हूँ ! अर्थात् चारित्र ग्रहण नहीं करता ! स्वजन-सम्बन्धी और धन-विषयादि का पल तो इस प्रकार का है ! अर्थात् विपरोत * पृष्ठ ६८
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