Book Title: Upmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Author(s): Siddharshi Gani, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
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प्रस्ताव २ : कर्मपरिणाम और कालपरिणति
१४६ सम्पूर्ण अन्तःपुर में तिलक समान, अपने रूप, लावण्य, वर्ण, विज्ञान, विलास और नृत्य आदि गुणों से भरपूर, नियति यहच्छा आदि अनेक रानियों में भी प्रधानतम और अत्यधिक रमणीय कालपरिणति नामक महादेवी है । वह महादेवी ऋतुओं में शरद जैसी, शरद् ऋतु में कुमुदिनी जैसी. कुमुदिनी में कमलिनी जैसी, कमलिनी में कलहंसिका जैसी और कलहंसिकानों में राजहंसिका जैसी है। महाराजा को वह काल परिणति महारानी प्राणों से भी अधिक प्रिय है। स्वयं की चित्तवृत्ति के समान वह जो कुछ करती है उसे प्रमाणभूत माना जाता है । मंत्रिमण्डल के परामर्श के समान वह महाराजा कोई भी कार्य करने से पूर्व महारानी से परामर्श लेता है। श्रेष्ठ मित्रमण्डली के समान वह महारानी महाराजा के * विश्वास का स्थान है। अधिक क्या कहें ! संक्षेप में कहें, तो कर्मपरिणाम राजा का राज्य उस महादेवी पर ही आधारित है। वास्तव में वह महादेवी ही राज्य चलाती है । जैसे चंद्रिका से चन्द्र, रति से कामदेव, लक्ष्मी से विष्ण, पार्वती से शंकर अलग नहीं रह सकते वैसे ही कर्मपरिणाम राजा विरह-व्यथा के भय से कभी भी महारानी कालपरिणति को अपने से पृथक् नही रखते । स्वयं जहाँ जाते, जहाँ बैठते वहाँ महारानी को सर्वदा साथ ही रखते । वह महारानी भी अपने पति पर अतिशय अनुरागिनी होने के कारण कभी भी उनकी प्राज्ञा का उल्लंघन नहीं करती। 'पति-पत्नी परस्पर अनुकूल हों तभी प्रेम निरन्तर बना रहता है, अन्यथा प्रेम न तो बढ़ता है और न रहता ही है ।' इस नियम के अनुसार प्रवृत्ति करने से उनका प्रेम इतना गाढ़
और परिपूर्णता को प्राप्त हो गया था कि उसके टूटने की शंका करने का कोई कारण विद्यमान नहीं था । महादेवी का कठोर शासन
___ कालपरिणति महारानी महाराजा की कृपा से, यौवन की मस्ती से, स्त्रीहृदय की तुच्छता से, स्त्री-स्वभाव की चंचलता से और अनेक प्राणियों की विडंबना के कौतूहल से वह अपने मन में अपना प्रसार सब जगह करने में अपने को समर्थ मानती हुई, सुषमा दुःषमा आदि नाम की अपनी प्यारी सखियों से परिवेष्टित जिन्हें वह अपने अंग के समान ही मानती है और समय, मावलिका, मुहूर्त, प्रहर, दिन, अहोरात्र. पक्ष, मास, ऋतु, प्रयन, संवत्सर, युग, पल्योपम, सागरोपम, अवसर्पिणी, उत्सर्पिणी, पुद्गलपरावंत आदि परिवार और नौकर-चाकरों से 'मैं इस लोक में सर्वकार्य करने में समर्थ हैं' ऐसा गर्व अपने मन में रखते हुए. अपने पति कर्मपरिणाम महाराजा की आज्ञा से निर्देशित संसार नामक नाटक को करवाने में अपने पति के साथ बैठकर अभिमानपूर्वक श्राज्ञा देती है- इस योनि रूपी पर्दे के भीतर अभी जो पात्र तैयार होकर बैठे हैं वे सब मेरी प्राज्ञा से बाहर निकले और सब से पहले रोने का नाटक करें । उसके बाद अपनी मातामों के स्तन से दुग्धपान करें। फिर धुलिधसरित वदन से घुटने के बल रेंगते हुए चलें । डगमग चलते हुए पग-पग पर जमीन * पृष्ठ १०६
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