Book Title: Upmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Author(s): Siddharshi Gani, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
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उपमिति-भव-प्रपंच कथा इस बस्ती में बहुत समय तक रहने के बाद जब मेरी वह गोली भी घिस गई तब फिर दूसरी गोली देकर भवितव्यता मुझे वापिस पहले मोहल्ले में ले पाई। यहाँ भी मुझे अनन्त काल तक रहना पड़ा । मुझे बार-बार नई-नई गोली देकर फिर से दूसरी, तीसरी, चौथी बस्तियों में असंख्य काल तक रखा गया। इस प्रकार भवितव्यता ने तीव्रमोहोदय और अत्यन्ता बोध के समक्ष मुझे एकाक्षनिवास नगर की सभी बस्तियों में बार-बार अनन्तबार भटकाया ।
६. विकलाक्षनिवास नगर एक दिन भवितव्यता ने किंचित् प्रसन्न होकर कहा, 'आर्यपुत्र ! आप इस नगर में बहुत समय तक रहे, अतः अब इस स्थान से भी आपको अरुचि हो गई होगी। इस अरुचि को मिटाने के लिये अब मैं आपको दूसरे नगर में ले जाती हूँ।' मुझे तो भवितव्यता की आज्ञा माननी ही थी अतः कहा, 'जैसी देवी की आज्ञा ।' महादेवी ने फिर दूसरी तरह की गोलियों का प्रयोग किया।
____ मनुष्य लोक में एक विकलाक्षनिवास नामक नगर है । उस नगर में तीन बड़ी बस्तियां हैं । उस नगर का पालन करने के लिये कर्मपरिणाम महाराजा ने उन्मार्गोपदेशक नामक अधिकारी की नियुक्ति कर रखी है । इस अधिकारी की माया नामक स्त्री है । भवितव्यता द्वारा दी गई गोली के प्रभाव से मैं पहली बस्ती में गया। वहां सात लाख कुल कोटि की संख्या में असंख्य द्विहृषीक (दो इन्द्रियों वाले) कुलपुत्र रहते हैं । मैं भी उनके साथ वैसा ही द्विहषीक हो गया। पहले एकाक्षनगर में मेरी सुप्त, मत्त और मृत जैसी स्थिति थी, वह यहां आने से दूर हुई
और ऐसा लगने लगा मानों मेरे में कुछ चेतना (शक्ति) पा गयी हो । अर्थात् मैं स्थावर न रहकर त्रस जाति में आ गया। प्रथम मोहल्ला : द्विहृषीक ।
मेरे पाप का अभी तक अन्त नहीं आया। यहाँ भी मेरी स्त्री ने एक गोली देकर मुझे महा अपवित्र स्थान में कृमि बनाया । मुझे मूत्र, आन्त्र, रुधिर, जम्बाल (कचरे) से भरे हुए उदर में रहते हए देखकर विशाल नेत्रों वाली मेरी स्त्री भवितव्यता बहुत प्रसन्न होती। किसी समय कुत्ते आदि के शरीर पर पड़े हुए दुर्गन्धी पूर्ण घावों में मुझे दूसरे अनेक जीवों के साथ देखकर वह बहुत हर्षित होती। पुरुष के वीर्य और स्त्री के रज में अथवा विष्टा में परस्पर घर्षण से दुःख पाते हए, एक प्रकार के कृमि की आकृति धारण करते मुझे देखकर भवितव्यता प्रमुदित होती। फिर दूसरी गोली देकर मुझे जलोका जीव के रूप में परिवर्तित कर मेरी स्त्री मायादेवी के साथ मिलकर खुश होती। मुझे दुःख पाता देखकर वह हँसती और अधिक दुःख देती । वह कहती, 'मायादेवि ! * उन्मार्गोपदेशक तेरा पति है पृष्ठ १३४
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