Book Title: Upmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Author(s): Siddharshi Gani, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
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प्रस्ताव १ : पीठबन्ध
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चारित्र मोहनीय कर्म का उदय
___जिस समय जीव स्वयं की सद्बुद्धि के साथ ऊहापोह करता है उसी समय सर्व संग-त्याग की बुद्धि को चारित्र मोहनीय कर्म के अंश उसे झकझोरते रहते हैं, इस कारण उसकी बुद्धि डांवाडोल हो जाती है । फलतः उसके वीर्य (पराक्रम) की हानि होती है और वह इस प्रकार के झूठे बहानों का पालम्बन लेता है । जैसे, यदि मैं दीक्षा ग्रहण कर लू तो मेरे कुटुम्ब का क्या होगा? मेरे मुखड़े को * देखकर जीने वाले ये मेरे विरह में कितना दु:ख प्राप्त करेंगे ? क्या बिना अवसर ही इनका त्याग कर दूं? अभी तक यह लड़का जवान भी नहीं हुआ है, लड़की अभी तक कुवारी ही है, मेरी बहिन का पति परदेश गया हुआ है, अथवा मेरी बहिन विधवा है अतः इसका पालन भी मुझे ही करना चाहिये, मेरा यह भाई अभी घर का भार संभालने में शक्तिमान नहीं है, मेरे माता-पिता दोनों ही वृद्ध हैं. जर्जरित हो रहे हैं और उन दोनों का मेरे ऊपर अत्यधिक स्नेह है, मेरे ऊपर, प्रगाढ प्रेम रखने वाली पत्नी अभी गर्भवती है और वह मेरे विरह में जीवित भी नहीं रह सकती । अतः अस्त-व्यस्त स्थिति वाले इस कूटम्ब का मैं परित्याग कैसे करू ? अथवा मेरे पास विपुल धन-भंडार है, बहत लोग मेरे कर्जदार हैं, मेरा विशाल परिवार और मेरे भाई लोग मेरा अच्छी तरह से आदर सत्कार करते हैं, इनका पालन-पोषण करना मेरा कर्तव्य है । अतः कर्जदारों से ऋण (धन) वसूल कर उसे परिवार और बन्धुजनों में बांटकर, कुछ धन धर्म कार्य में लगाकर, गृहस्थ धर्म के समस्त कर्तव्यों को पूरा करने के पश्चात् माता-पिता की आज्ञा प्राप्त कर मैं स्वेच्छा से दीक्षा ग्रहण करूगा । अतएव असमय में ही दीक्षा ग्रहण करने के विचारों से क्या लाभ है ? कातर प्राणी के बहाने
पुनः दीक्षा ग्रहण करना और उसका पालन करना अपने भुजबल से स्वयम्भूरमण समुद्र को तिरने के समान है, गंगा के वेगवान प्रबल प्रवाह के सामने तिरने के सदृश है, लोहे के चने चबाने के समान है, लोहे के मोदक खाने के समान है, छिद्रों से भरपूर कम्बल में सूक्ष्म पवन भरने के समान है, मेरु पर्वत को अपने मस्तक से भेदन करने के समान है, डाभ के अग्रभाग से समुद्र का माप लेने के समान है, तैलपूर्ण पात्र को लेकर सौ योजन तक दौड़ते हुए भी एक भी तैलबिन्दु न गिरने देने के समान है, दायें और बायें घूमते हुए आठ चक्रों के छेद में जाने वाले बारण के के द्वारा अष्टचक्र के ऊपर रही हुई पुतली की दाई अाँख भेदन के समान है अर्थात् राधावेध-साधन के तुल्य है, पैर कहाँ पड़ रहे हैं ध्यान में रखे बिना ही तलवार की तीक्ष्ण धार पर चलने के समान है । क्योंकि, यहाँ (दीक्षा के पश्चात्) परीषह सहन करने पड़ते हैं, देवादि उपसर्गों का सामना करना पड़ता है, समस्त पापयोगों से
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