________________
१३०
उपमिति-भव-प्रपंच कथा
कारी है। तथापि, इन पर पर्यालोचन (ऊहापोह) न करने के कारण ही मेरा इनके प्रति स्नेह और मोह दूर नहीं हो रहा है। यह निश्चित है कि अज्ञान लीला के कारण ही मैं इनके प्रति लुब्ध होकर विरक्तिपथ की ओर नहीं बढ़ पा रहा हूँ। इनकी अनर्थ-परम्परा को देखता हुआ भी व्यामूढ़ हृदय होकर मैं किसके लिए आत्मवंचना करू ? अतएव अच्छा यही है कि अन्तरंग और बहिरंग संग-समूह जो कचरे अथवा सेवाल के समान है और जो कोशेटा (रेशम का कीड़ा) के समान स्वयं को अपने तन्तुओं से जकड़ लेता है, का सर्वथा परित्याग कर दूं। मन को दृढ़ता
यद्यपि यह जीव ज्यों-ज्यों सर्वत्याग का विचार करता है त्यों-त्यों विषय आदि रस से स्निग्ध चित्त को यह त्याग सर्वथा दुष्कर प्रतीत होता है तथापि वह निश्चय करता है कि मुझे तो सर्वसंग का त्याग कर ही देना चाहिये, भविष्य में जो होना होगा, हो जाएगा। अरे! भविष्य में होना भी क्या है ? इन समस्त असुन्दर पदार्थों का परित्याग करने पर भविष्य में मेरा बुरा भी क्या होगा? अरे ! इसका त्याग करने पर तो जो आज तक कभी प्राप्त नहीं हुआ ऐसा अनुपम आनन्दोल्लास मन को प्राप्त होगा। जब तक यह जीव कीचड़ में फसे हुए हाथी के समान परिग्रह रूपी कीचड़ में फंसा हुआ रहता है तब तक ही उसे समस्त पदार्थों का त्याग करना दुष्कर प्रतीत होता है, किन्तु जब वह विषयरूपी दलदल से बाहर निकल आता है तब इस जीव में विवेक दृष्टि जागृत होने से वह धन-विषयादि पदार्थों की ओर दृष्टिपात भी नहीं करता। 'ऐसा कौन मूर्ख होगा जो विशाल साम्राज्य का अधिपति होने के बाद पुनः अपनी पूर्वावस्था चाण्डालपन की अभिलाषा करेगा ?' ऐसा विचार करते हुए यह जीव दृढ़ निश्चय करता है कि सर्वसंग का परित्याग कर देना चाहिये । इनका त्याग करने से किसी प्रकार की हानि नहीं होने वाली है।
निष्पुण्यक : सपुण्यक
तदनन्तर यह जीव पुनः सद्बुद्धि के साथ पर्यालोचन कर निश्चय करता है कि इस सम्बन्ध में मुझे सद्धर्माचार्य से पूछना चाहिये । निश्चयानन्तर वह जीव धर्माचार्य के पास आकर विनय पूर्वक स्वयं के विचार निवेदन करता है । धर्मगुरु जीव के विचारों को ध्यान पूर्वक सुनते हैं। पश्चात् धर्माचार्य कहते हैं:--'भद्र ! बहुत अच्छा, तेरे अध्यवसाय (विचार) बहुत ही उत्तम हैं, किन्तु तुझे यह बात ध्यान में रखनी चाहिये कि इस प्रशस्त मार्ग पर महापुरुष चलकर आगे बढ़े हैं फिर भी यह मार्ग कायर प्राणियों के लिए भयोत्पादक है। तू इस मार्ग पर चलना चाहता है तो तू दृढ़ धैर्य का आलम्बन अवश्य लेना । जो प्राणी धैर्य रहित और विकल चित्त वाले होते हैं वे इस मार्ग पर चलकर दूसरे किनारे तक नहीं पहुँच सकते । फलतः इस मार्ग पर कदम रखने से पूर्व तू पूरी तरह सोच समझकर दृढ़ निश्चय कर लेना।' इस प्रकार
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org