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उपमिति-भव-प्रपंच कथा
हृदयगत निर्देशों का परिपालन करने में पूर्णतया सक्षम होती है, अर्थात् तदनुसार ही जीव की परिचर्या करती है (ऐसा उपनय समझे) ।
तदनन्तर यह जीव उसी समय सद्गुरु के वचनों को अंगीकार करता है, यावज्जीवन आपके निर्देशानुसार ही कर्तव्यों का पालन करूंगा, ऐसा दृढ़ निश्चय (प्रत्याख्यान) करता है और देश विरति का पालन करता हुआ कितने ही समय तक सर्वज्ञ-शासन-मन्दिर में निवास करता है। साथ ही यह जीव धन-विषय-कलत्र और कुटुम्बादि का आधारभूत भिक्षापात्र (आयु कर्म) के समान स्वयं के जोवितव्य का भी पालन करता है।
इसी बीच वहाँ निवास करते हुए जो कुछ घटित हुअा उसका अव वर्णन करते हैं।
[ ३१ ] औषध-सेवन से लाभ और अपथ्य भोजन से हानि
जैसा पहले कह चुके हैं:--' तद्दया रात-दिन उसे तीनों औषधियाँ देती रही पर द्रमुक को अभी भी अपने कुभोजन पर अत्यधिक प्रासक्ति रही जिससे उसे औषधियों पर पूर्ण विश्वास नहीं हो पाया।" इस कथन की जीव के साथ तुलना इस प्रकार करें-आचार्यदेव की दया इस जीव को विशेष रूप से बारम्बार ज्ञानत्रयी औषध प्रदान करती है तथापि कर्म-परतन्त्र और धनादि पर गाढ़ासक्ति होने के कारण यह जीव इस दया-औषध को अधिक महत्व नहीं देता, अर्थात् इस दया का अधिक लाभ नहीं उठा पाता ।
जैसे कथानक में निष्पुण्यक "मोहवश अपने पास का कुभोजन अधिक खा लेता और तद्दया द्वारा दिया हुआ भोजन बहुत ही कम खाता।" वैसे ही महामोह से मारा हुआ यह जीव धनोपार्जन, विषयभोग आदि सांसारिक कार्यों में गाढ़ानुराग के साथ व्यस्त रहता है और धर्माचार्य द्वारा दयापूर्वक प्रदत्त व्रतनियमादि का अनादरपूर्वक यदा-कदा थोड़ा बहुत पालन करता है अथवा कभी पालन नहीं भी करता है। जैसे “तद्दया जब उसे कहती तब वह कभी-कभी थोड़ा सुरमा आँख में डालता ।" वैसे ही यह जीव भी गुरुदेव की दया से प्रेरित होने पर और उनके अनुरोध को ध्यान में रखकर कभी-कभी थोड़ा बहुत ज्ञान का अभ्यास करता है; सर्वदा नहीं। जैसे कथा में निष्पुण्यक "तद्दया द्वारा बारम्बार प्रेरित करने पर थोड़ा सा तीर्थजल पीता।" वैसे ही यह जीव भी प्रमादवश होकर जब अनुकम्पा-परायण धर्मगुरु बारम्बार प्रेरित करते तब सम्यग दर्शन को * उत्तरोत्तर प्रदीप्त करता हुआ आगे बढ़ता किन्तु अपनी इच्छा से या उत्साह से नहीं।
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