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प्रस्ताव १ : पोठबन्ध
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कुत्सित भोजन में बढ़ोत्तरी
जैसे पहले कथा-प्रसंग में कह चुके हैं:----तया विश्वासपूर्वक उसे महाकल्याणक भोजन प्रचुर मात्रा में देती, पर वह थोड़ा खाकर बाकी अपने भिक्षापात्र में डाल देता। उसके तुच्छ भोजन के साथ इस सुन्दर भोजन की मिलावट हो जाने से यह उच्छिष्ट भोजन निरन्तर बढ़ता रहता और रात-दिन खाने पर भी समाप्त नहीं होता। अपने भोजन में इस प्रकार वृद्धि देखकर वह अत्यधिक प्रसन्न होता पर किसके प्रताप से और किस कारण से उसके भोजन में वृद्धि हो रही है, इस बात पर वह कभी विचार नहीं करता। केवल अपने भोजन में आसक्त वह निष्पुण्यक तीनों औषधियों के प्रति निरन्तर कम रुचि वाला होने लगा और स्वयं सब कुछ जानते हुए भी अज्ञानी बनकर सांसारिक मोह में अपना समय व्यतीत करने लगा । अपना अपथ्यकारी तुच्छ भोजन रात-दिन खाने से उसका शरीर तो अवश्य हृष्ट-पुष्ट हुआ पर तीनों औषधियों का अरुचि से कभी-कभी थोड़ा-थोड़ा सेवन करने से उसकी व्याधियों का समूल नाश नहीं हुआ। महाकल्याणक भोजन वह इतना थोड़ा ले रहा था और सुरमे तथा जल का प्रयोग भी यदा-कदा करता था, फिर भी उसे प्रचुर लाभ तो हुआ और उसकी व्याधियाँ भी कम हुई, पर वस्तुस्वरूप का बराबर भान न होने से और अपथ्य भोजन का अधिक सेवन करने से उसके शरीर पर कुभोजन के विकार निरन्तर दिखाई देते थे। अपथ्य भोजन के विशेष उपभोग से कई बार उसे उदरशूल होता, कई बार शरीर में दाह-ज्वर होता, कई बार मूर्छा (घबराहट) आ जाती, कभी ज्वर आ जाता, कभी सर्दी-जुकाम हो जाता, कई बार जड़ (संज्ञाहीन) हो जाता, कई बार छाती और पसलियों में दर्द होता, कई बार उन्मादित-सा (पागल) हो जाता और कई बार पथ्य भोजन पर अरुचि हो जाती। इस प्रकार ये सब रोग उसके शरीर में विकार उत्पन्न कर, कई बार उसे त्रास देते थे।" वैसे ही इस जीव के साथ भी होता है; जो इस प्रकार हैअणुव्रत का माहात्म्य
किसी समय में चातुर्मास के प्रारम्भ में दयालु आचार्य इस जीव पर दया लाकर विशेषरूप से विरति ग्रहण-हेतु अणुव्रत की विधि बतलाते हैं। उसे सुनकर यह जीव तीव्र संवेग के कारण त्याग की भावना भी करता है किन्तु चारित्रावरणीय कर्म की प्रबलता के कारण तथा स्वयं की मन्दवीर्यता के कारण वह कोई-कोई व्रत नियम अल्परूप में ग्रहण करता है । जैसे तद्दया द्वारा निष्पुण्यक को बारम्बार भोजन देने पर भी वह उसमें से थोड़ा सा भोजन लेता वैसे ही प्राचार्य की अनुकम्पा से प्राप्त चारित्र-भोजन को यह जीव भी अल्प मात्रा में ही लेता। दयालू प्राचार्य के अनुरोध पर यह जीव अनिच्छापूर्वक कुछ व्रत भी ग्रहण कर लेता था। इस कथन को जिस प्रकार निष्पुण्यक शेष भोजन को अपने भोजन में मिला देता था, उसी के
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