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उपमिति भव-प्रपंच कथा
उपालम्भ देते हैं- भद्र ! मैंने तुझे पहले ही कहा था कि विषयासक्त जीव का मन सर्वदा सन्तप्त रहता है तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है, स्वाभाविक है । जो प्राणी धनोपार्जन और उसके रक्षण में सर्वदा व्यस्त रहते हैं उनसे अनेक प्रकार की विपत्तियाँ दूर नहीं रहती, अर्थात् विभिन्न विपत्तियों से घिरा रहता है; तब भी तू विषयादि पर गाढासक्ति रखता है और ज्ञान दर्शन चारित्र जो समस्त क्लेशसमूह रूपी महा अजीर्ण का नाश करने वाले हैं तथा परम स्वास्थ्य ( परम शान्ति ) के कारण हैं उनको तू उपेक्षा की दृष्टि से देखता है । ऐसी अवस्था में अब तू ही बता कि हम क्या करें ? यदि हम तुझे त्याग के सम्बन्ध में कुछ कहते हैं तो तू प्राकुलव्याकुल हो जाता है । तेरे ऊपर अनेक प्रकार के उपद्रव होते रहते हैं, यह हमारी दृष्टि से छिपा हुआ नहीं है, फिर भी हम अनदेखी कर जाते हैं और चुप बैठे रहते हैं । तेरी आकुलता के भय से तुझे गलत रास्ते पर जाते हुए भी नहीं रोकते हैं । जो प्राणी ज्ञान दर्शन चारित्र का आदर करते हैं, असत्कार्यों का परिहार करते हैं और इस रत्नत्रयी का अनुष्ठान करते हैं वे ही इन विकारों को दूर करने में सक्षम हो सकते हैं, अनादर और उपेक्षा करने वाले प्राणी नहीं । हमारे देखते हुए भी तू रागादि भाव - रोगों से पीडित रहता है तब तुम्हारे गुरु होने के कारण लोगों की दृष्टि में हमें भी उपालम्भ का पात्र बनना पड़ता है । गुरु द्वारा दिये गये इस उपालम्भ को तद्दया द्वारा निष्पुण्यक को दिये गये उपालम्भ के तुल्य समझें । इच्छा, प्रासक्ति और भावना
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गुरुदेव का इस प्रकार उपालम्भ सुनकर जीव ने उत्तर देते हुए कहाभगवन् ! अनादिकालीन संस्कारों के कारण तृष्णा लोलुपता आदि के भाव मुझे मोहित करते हैं । तृष्णा लोलुपता के वशीभूत होने के कारण आरम्भ ( हिंसा ) और परिग्रह के कटुफलों को जानता हुआ भी मैं इनको छोड़ नहीं सकता। ऐसा होते हुए भी मेरी ओर ग्राप उपेक्षाभाव न रखें तथा प्रयत्न पूर्वक प्रसत्प्रवृत्तियों से मुझे रोकें । इससे संभव है कि अभी तो मैं दोषों का थोड़ा-थोड़ा त्याग कर रहा हूँ किन्तु भविष्य में कदाचित् आपके प्रभाव से परिणतियों के परिवर्तन होने पर समस्त दोषों को त्याग करने की शक्ति प्राप्त कर सकू ।
तद्दया का उद्यम
धर्माचार्य जीव की प्रार्थना को स्वीकार करते हैं और किसी-किसी समय जब जीव प्रमादाचरण करता है तब उसे उस आचरण से रोकते हैं । धर्माचार्य के निर्देशानुसार आचरण ( प्रवृत्ति) करने से अभी तक अशुभ प्रवृति के कारण जीव को जो पीडायें होती थी उनका उपशमन होने लगा और धर्माचार्य के प्रसाद से ज्ञानादि गुणों का विकास होने लगा । जैसे तद्दया के कथनानुसार प्रवृत्ति करने से * पृष्ठ ६१
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