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प्रस्ताव १ : पीठबन्ध
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पाराधना और महाराज्य प्राप्ति
धर्माचार्य कहते हैं- "हे भद्र ! तूने जो कहा कि 'पाप ही मेरे नाथ हैं ये वचन तेरे जैसे जीवों के लिये तो ठीक हैं किन्तु साधारणतया तुझे ऐसा नहीं कहना चाहिये ; क्योंकि तुम्हारा और हमारा नाथ तो परमात्मा सर्वज्ञ भगवान् ही है। वे ही त्रिभुवन के चराचर प्राणियों के पालक होने के कारण नाथ होने योग्य हैं। विशेषतया सर्वज्ञ-प्रणीत ज्ञान-दर्शन-चारित्र प्रधान दर्शन का जो पालन करते हैं उनके तो वे प्रमुख रूप से नाथ हैं ही। कितने ही महात्मा सर्वज्ञदेव का किंकर भाव स्वीकार कर, केवलज्ञानरूप राज्य प्राप्त कर, * समस्त विश्व को अपना किंकर बना लेते हैं । अन्य जो पापी प्राणी होते हैं वे तो सर्वज्ञदेव का नाम भी नहीं जानते । भविष्य में जिनका कल्याण होने वाला होता है उन्हीं प्राणियों को जब उनके कर्म-विवर (मार्ग) देते हैं तब ही इस दर्शन को प्राप्त करते हैं । तू इस पगोथिये पर चढ़ा है और स्वकर्मविवर ने तुझे यहाँ पहुँचाया है, अतएव तूने अन्तःकरण से सर्वज्ञदेव को स्वीकार किया है। इस सर्वज्ञदेव को प्राप्त करने के तरतमभेद से संख्यातीत स्थान हैं। तुझे श्रेष्ठ स्थान प्राप्त हो और तू स्वयं भविष्य में प्रगति करे, इसलिये हमारा यह प्रयत्न है। देव को सामान्यतया प्राणी जानते हैं किन्तु सद्गुरु-सम्प्रदाय के बिना उनके विशिष्ट स्वरूप (गुणों) को नहीं जान पाते। इस प्रकार धर्माचार्य जीव के सन्मुख भगवान् के गुणों का वर्णन करते हैं। स्वयं को भगवान् का सेवक बतलाते हैं और उसे भगवान् को विशेषकर नाथ के रूप में स्वीकार करने को समझाते हैं। वे भगवद्गुण-वर्णन द्वारा उन गुणों के प्रति जीव के हृदय में कौतुक (आश्चर्य) उत्पन्न करते हैं। उन विशिष्ट गुरगों को जानने के लिए रागादि भावरोगों को क्षीण करने का उपाय ज्ञान-दर्शन-चारित्र रूप तीन औषधियां बतलाते हैं। इन औषधियों का प्रतिक्षण सेवन करने का उपदेश देते हैं । इन औषधियों के सेवन को ही भगवान् की आराधना बतलाते हैं और भगवदाराधन से ही विशाल राज्य की प्राप्ति के समान ही परमपद प्राप्ति होती है, ऐसा प्रतिपादन करते हैं। जीव द्वारा गृहीत गुणों को विशेष रूप से दृढ़ करने के लिए उसके हित को लक्ष्य में रखकर आचार्यदेव ऐसा कहते हैं।
[ २७ ] दरिद्री का प्राग्रह
जैसा कि कथानक में पहले कह चुके हैं:--"धर्मबोधकर की उपयुक्त मधुर बातें सुनकर निष्पुण्यक का हृदय आह्लाद से भर गया और उनकी बात को स्वीकार करते हुए भी वह कुछ सोचकर बोला-स्वामिन् ! आपने इतनी बात कही तो भी मैं अभी भी अपने तुच्छ भोजनरूपी पाप को छोड़ नहीं सकता। इसके
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