Book Title: Upmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Author(s): Siddharshi Gani, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
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प्रस्ताव १ : पीठबन्ध
१०५ संसारी प्राणियों के लिये श्रेष्ठ और हितकारी जिनोपदिष्ट धर्म के अतिरिक्त विश्व में कोई भी उपाय नहीं है।
विरति (त्यागभाव) सर्वश्रेष्ठ धर्म है । मेरे द्वारा यह धर्म इस जीव को किसी भी प्रकार प्राप्त हो जाए तो मेरा प्रयत्न सफल हो जाएगा। तब मैं समझूगा कि मैंने क्य नहीं प्राप्त किया ? अर्थात् सब कुछ प्राप्त कर लिया।
महान् अर्थ का प्राश्रय (विशिष्ट कार्य का अवलंबन) लेकर जो परिश्रम करते हैं, उस कार्य की सिद्धि पर उनको आत्म सन्तोष होता है। यदि कदाचित कार्य सिद्ध न हो तो भी ग्लानि नहीं होती, क्योंकि विशिष्ट कार्य की सफलता के लिये उसने साहस के साथ पूर्ण परिश्रम किया था।
अतएव पुनः सब प्रकार के प्रयत्न कर, इसे विश्वस्त कर मधुर वचनों से इसको प्रतिबोधित करूं, इस प्रकार सद्धर्माचार्य अपने हृदय में निश्चय करते हैं। विशिष्ट प्रयत्न
धर्मबोधकर ने विचार कर निष्पुण्यक की शंकायों को निरस्त करते हुए उसको विशेष रूप से समझाने का प्रयास किया उसका विस्तृत विवेचन कथा-प्रसंग में कर चुके हैं। सारांश इस प्रकार है --- इस प्रकार धर्मबोधकर ने विशेष रूप से उस कुत्सित भोजन के दोष भिखारी निष्पुण्यक को समझाए। यह भोजन त्याग करने योग्य ही है यह भी युक्तिपूर्वक समझाया। निष्पुण्यक की जो मान्यता थी कि भविष्य में इससे ही मेरा निर्वाह होगा उसे भी दूषित बताया। स्वयं के परमान्न को प्रशंसा की अोर उसे यह भी समझाया कि यह भोजन तुझे सर्वदा मिलेगा। जल और अंजन से तुझे जो शान्ति मिली, उसका उदाहरण देकर उसका आत्म-विश्वास जागत करते हुए कहा-. "द्रमुक ! अधिक क्या कहूँ ? तू इस कुभोजन का त्याग कर
और अमृततुल्य मेरा स्वादिष्ट भोजन ग्रहण कर ।" वैसे ही सद्धर्माचार्य भी इसी परिपाटी का अवलम्बन लेते हैं; जो इस प्रकार है-- चारित्र रस का प्रास्वादन
प्राचार्यदेव भी जीव को समझाते हैं कि धन-विषय-कलत्रादि रागादि दोषों के कारण हैं, ये ही कर्म-संचय के कारण हैं और ये ही अनन्त संसार में परिभ्रमण के कारण हैं। ऐसा स्पष्ट करते हुए पुनः कहते हैं-हे भद्र ! ये धनादि पदार्थ बड़े कष्ट से प्राप्त होते हैं, इनका उपभोग करते समय भी अनेक कष्ट झेलने पड़ते हैं और भविष्य में भी ये अनेक कष्टों को पैदा करते हैं, अतएव ये धनादि त्याग करने योग्य हैं। हे भद्र ! मोह के कारण अभी तेरी विपरीत चित्तवृत्ति होने
से तेरी बुद्धि इन भोगों को सुन्दर मान रही है। पुन: यदि तू एक बार भी चारित्र• रूपी रस का प्रास्वादन कर लेगा तो हमारे कहे बिना ही तू इन भोगों की ओर
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