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प्रस्ताव १ : पाठबन्ध
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आने से सब को स्पष्टतया दृष्टिगोचर होती हैं। इस प्रकार धर्म के कारण, स्वभाव और कार्य - इन तीनों रूपों को प्रत्यक्षतः देखते हए भी तू कैसे कहता है कि मैंने धर्म को नहीं देखा ? धर्म के जो तीन भेद दिखाए उसमें से तीसरा भेद कार्य ही धर्म के नाम से कहा जाता है, प्रसिद्ध है। इसमें विशिष्ट बात यह है कि जैसे 'मेघ तन्दुलों (चावलों) की वर्षा करता है, मेघ तो पानी बरसाता है किन्तु पानी पड़ने से कार्य रूप तन्दुल पैदा होते हैं । यहाँ कारण में कार्य का उपचार है वैसे ही सदनुष्ठान रूप कारण में कार्य का उपचार करने से इसको धर्म कहा जाता है। ऊपर स्वभाव वर्णन में सास्रव स्वभाव कहा है उसे यहाँ पुण्यानुबन्धी पुण्य रूप समझ और जो अनास्रव भेद कहा गया है उसे यहाँ (जैन परिभाषा में) निर्जरा रूप समझ । उक्त दोनों प्रकार के सास्रव-अनास्रव स्वभाव को भी बिना किसी उपचार से साक्षात् धर्म नाम से ही सम्बोधित करते हैं, धर्म ही कहते हैं। प्राणियों में प्रारोग्य, सौभाग्य, यश, कीर्ति, धनप्राप्ति आदि जो देखने में आती है उसे ही कार्य में कारण का आरोप करके लोग उसे धर्म के नाम से ख्यापित करते हैं. पहचानते हैं। जैसे, 'यह मेरा शरीर पूर्व कर्म है,' अर्थात् शरीर रूप कार्य का कारण पूर्वकृत कर्म है तो भी शरीर रूप कार्य में कारण का आरोप कर उसे ही कर्म कह देते हैं।
यह कथन सुनकर जीव बोला-भगवन् ! आपने धर्म के तीन रूप बतलाए, इन तीनों में से ग्रहण करने योग्य कौनसा है ?
धर्माचार्य · भद्र ! सद्नुष्ठान कारण ही ग्रहण करने योग्य है । यही कारण, स्वभाव और कार्य दोनों की प्राप्ति करवा देता है।
जीव -- सदनुष्ठान कौन-कौन से हैं ?
धर्माचार्य -- सौम्य ! सदनुष्ठान दो प्रकार का है- साधु धर्म और गृहस्थ (श्रावक) धर्म । और इन दोनों प्रकार के धर्मों का मूल सम्यग् दर्शन है।
जीव-भगवन् ! आपने पहले किसी समय मुझे सम्यग् दर्शन का उपदेश दिया था, किन्तु उस समय मैंने आपकी बात ध्यान पूर्वक नहीं सुनी थी । अतः कृपा कर पुनः कहिए कि इस सम्यग् दर्शन का स्वरूप क्या है ?
जीव की जिज्ञासा देखकर आचार्य प्रथमावस्था के योग्य सम्यग् दर्शन का सामान्य स्वरूप इस प्रकार प्रतिपादित करते हैंसम्यग् दर्शन का सामान्य स्वरूप
हे भद्र ! जो राग, द्वेष, मोहादि से रहित हो, जो अनन्त ज्ञान अनन्त दर्शन अनन्त वीर्य और प्रानन्दस्वरूप हो, जो समस्त जगत् का कल्याण करने में * पृष्ठ ७३
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