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उपमिति-भव-प्रपंच कथा
ओर प्रेरित करती हैं और श्रेष्ठ कार्यों के लिये पुनः पुनः प्रेरणा देती हैं। इस प्रकार वे उनको सन्मार्ग के पथ पर अग्रसरित करती हैं और उन आर्याओं को विषयरूपी विष के भयंकर विपाकों का ज्ञान होने से वे विषयभोग से निवृत्त होकर, संयम मार्ग में रमण करतो हैं, विशेष प्रकार के तपविधानादि लीला पूर्वक करती हैं, अनवरत स्वाध्याय करने में प्रसन्नता अनुभव करती हैं, किंचित् भो प्रमादाचरण नहीं करतों और निःसंकोच एवं निःशंक होकर आचार्यो के आदेशों का पालन करती हैं।
V
राजमन्दिर में सुभट
पूर्व में कहा जा च का है- 'अनेक योद्धाओं द्वारा वह राजमन्दिर चारों ओर से सुरक्षित था।' यहाँ इस भगवत् शासन में श्रमणोपासकों (श्रावकवर्ग) के समूह को सुभट वृन्द समझे । इस श्रावकवर्ग की विपुल संख्या होने से ये चारों ओर व्याप्त होकर (फैलकर) शासन मन्दिर को सुरक्षित रखते हैं। क्योंकि देवलोक में असंख्य, मनुष्य लोक में संख्यात, तिर्यञ्च गति में बहुत प्रकार के तथा नरक गति में भी बहत श्रावक होते हैं। ये श्रावक शूर वीर, उदार और गाम्भीर्यादि गुरणों से सम्पन्न होने के कारण जैनेन्द्र शासन के शत्रुओं को जिनका हृदय मिथ्यात्व से वासित है उनका चतुराई के साथ विघटन करने में सक्षम होते हैं। उनकी इस अनुपम प्रवृत्ति के कारण वे सुभट के उपमान के सर्वथा योग्य हैं । क्योंकि, ये श्रावक सर्वज्ञ देव का सर्वदा ध्यान करते हैं। प्राचार्यरूपी राजाओं की आराधना करते हैं। उपाध्यायरूपी अमात्यों के उपदेशों का पालन करते हैं । गीतार्थ-वृषभरूपी महारथियों के वचनानुसार धर्मकार्यों में प्रवृत्त होते हैं । साधुवर्ग पर सदा अनुग्रह करने वाले गणचिन्तकरूपी नियुक्तकों (कामदारों) को वस्त्र, पात्र, भोजन, पानी, औषध, प्रासन, संस्तारक आदि विधि पूर्वक एवं सन्मान के साथ प्रदान करते हैं। श्रमणरूपी तलवर्गिकों को, यह नवदीक्षित है या पुराना दीक्षित है इस विभेद रेखा को रखे बिना ही समस्त साधुवर्ग को विशुद्ध मन-वचन-काया से वन्दन करते है। आर्यारूपी स्थविराओं को उल्लसित हृदय से भक्तिपूर्वक नमन करते हैं। श्राविकारूपी विलासिनियों को समस्त धार्मिक-प्रवृत्तियों में प्रोत्साहित करते हैं। (देवलोक में रहते हुए) तीर्थकरों का जन्माभिषेकोत्सव और नन्दीश्वर द्वीप की यात्रा करते हैं। मृत्युलोक में रहते हुए पर्व दिवसों में स्नात्रादि धार्मिक कृत्यों का और शासन मन्दिर द्वारा प्रतिपादित नित्यक्रिया एवं नैमित्तिक क्रियाओं का उचित रीति से आचरण करते हैं। अधिक क्या कहें ? वे भावपूर्वक सर्वज्ञ शासन को * छोड़कर, अन्य किसी भी शासन को न तो देखते हैं, न सुनते हैं, न जानते हैं, न श्रद्धा (विश्वास) रखते हैं, न रुचि रखते हैं और न प्रश्रय देते हैं । केवल जैन शासन ही समस्त प्रकार को कल्याण करने वाला है ऐसा अन्तःकरण से स्वीकार करते हैं । प्रकर्ष भक्ति के कारण वे सर्वज्ञ महाराजादि को प्रिय होते हैं। इन्हीं कारणों से वे
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