________________
उपमिति-भव-प्रपंच कथा
विमानों के अधिपति देवगण और इन्द्रादि रहते हों वहाँ शब्दादि इन्द्रियों के अनुपम विषयोपभोगों की परिपूर्ण सामग्री से * वह स्थान रमणीय हो तो कोई पाश्चर्य की बात नहीं है । इन्द्रिय विषयों की प्राप्ति के सम्बन्ध में यह ध्यान रखना चाहिये कि पुण्योदय से भोग प्राप्त होते हैं । यह पुण्य दो प्रकार का है:-1. पुण्यानुबन्धी पुण्य
और 2. पापानुबन्धी पुण्य । इसमें पुण्यानुबन्धी के उदय से प्राप्त इन्द्रिय विषयों के लिये निरुपचरित (अनुपम) विशेषण सार्थक है। क्योंकि, जैसे सम्यक् प्रकार से बनाया हुआ स्वादिष्ट पथ्य भोजन खाते हुए भी अच्छा लगता है और वह शरीर को पुष्ट भी बनाता है वैसे ही पुण्यानुबन्धी पुण्य के योग से प्राप्त भोग भी प्राणी के अध्यवसायों को निर्मल बनाते हैं। प्राणियों के अध्यवसाय उदार होने से वे भोग उसके लिये बन्धन नहीं बनते अर्थात् वह प्राणी विषयों में लुब्ध और आसक्ति से अन्धा नहीं होता । भोगों के प्रति लोलुपता न होने के कारण विषयों का उपभोग करता हुआ भी प्राणी पूर्वबद्ध पाप परमाणुओं के बन्धनों को शिथिल करता है और शुभ फलदायक पुण्य-परमारों का संचय करता है। ऐसे पुण्य जब उदय में आते हैं तब वे इस प्राणी के हृदय में संसार के प्रति विरक्तिभाव जागृत करते हैं, तथा सुख की परम्परा प्रदान करते हुए क्रमशः मोक्ष प्राप्ति के हेतु बनते हैं। इसीलिये इन्हें सुन्दर परिणाम वाला कहा गया है। पापानुबन्धी पुण्य के उदय से जो शब्दादि विषयभोग प्राप्त होते हैं वे कालकूट विष से विनिर्मित मोदकों के समान भयंकर परिणामों को प्रदान करते हैं। अतएव पापानुबन्धी पुण्य को तत्त्वतः ‘भोग' शब्द से व्यवहृत करना भी उचित नहीं है; क्योंकि मरु-भूमि में जलकल्लोल की मृगतृष्णा के समान उन भोगों के पीछे दौड़ते हुए पुरुष का समस्त परिश्रम व्यर्थ जाता है और उसकी तृष्णा को अत्यधिक बढ़ा देता है, किन्तु उसको मन चाहे भोग कदापि प्राप्त नहीं होते। कदाचित् प्राप्त भी हो जाएँ तो उनका उपभोग करते समय वे क्लिष्ट (कर) अध्यवसायों को उत्पन्न करते हैं । तुच्छ और अधम विचारों से उन पुरुषों की बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है और विषयलुब्ध बन जाते हैं। इस प्रकार वे प्राणी पुण्य से प्राप्त विषयभोगों का कुछ समय तक उपभोग कर अपने पुण्य कर्मों को पूर्ण रूप से व्यय (समाप्त) कर देते हैं और पुनः अपनी आत्मा को गुरुतर पापकर्मों के भार से बोझिल बना लेते हैं। ये बन्धे हुए गुरुतर पापकर्म जब उदय में आते हैं और उनके कटुक फल जब भोगने पड़ते हैं तब यह जीव अनन्त काल तक संसार-सागर में परिभ्रमण करता रहता है। इसीलिये पापानुबन्धी पुण्य से प्राप्त शब्दादि इन्द्रिय भोगों को दारुण परिणाम वाला कहा गया है।
__ संसार में रहने वालें जिन प्राणिगणों के लिये ये शब्दादि इन्द्रिय भोग सून्दर परिणाम प्रदान करते हैं उन प्राणियों को उक्त विवेचन के अनुसार भगवत् शासन मन्दिर के निवासी ही समझे, बहिभूत नहीं। अतएव बुद्धिमानों को चाहिये कि
* पृष्ठ ५०
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org