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उपमिति-भव-प्रपंच कथा
के कारण तू कभी-कभी अपथ्य सेवन कर भी लेता है, पर उस समय तेरे पास मेरे रहने से तुझे बहुत लज्जानुभूति होती है। कुभोजन का सेवन करने में जब लज्जा लगे तब उसका प्रभाव बहुत थोड़ा होता है। फिर उस पर आसक्ति नहीं होने से बार-बार उसे खाने की इच्छा भी नहीं होती। इस प्रकार की चित्त-वृत्ति होने के बाद यदि कभी कुभोजन थोड़ा सा खा भी लिया तो वह शरीर की व्याधियों को नहीं बढ़ा पाता । तेरे मन में जो आनन्द और सुख का अनुभव हो रहा है, इसका यही कारण है।' [३८६-३६४] सम्पूर्ण त्याग के प्रति सचेष्ट
३५. निष्पूण्यक ने कहा--यदि ऐसी बात है तो मैं उस कुत्सित भोजन का सर्वथा त्याग ही कर देता हूँ, जिससे मुझे उच्च कोटि का सुख भली प्रकार मिल सके । [३६५]
सदबुद्धि ने कहा--बात तो बिल्कुल ठीक है, पर उसका त्याग सम्यक प्रकार से समझ कर करना, जिससे छोड़ने के बाद पूर्व आसक्तिवश तुझे उसके लिये पहले जैसी आकुलता-व्याकुलता न हो । एक बार उसका त्याग करने के बाद फिर से उस पर स्नेह होने लगे, उससे तो उसका त्याग नहीं करना ही अच्छा है; क्योंकि तुच्छ भोजन पर स्नेह रखने से व्याधियाँ बढ़ जाती हैं। कुभोजन बहुत थोड़ा खाने से और तीनों औषधियों का सेवन अधिक करने से तेरी व्याधियाँ कम हुई हैं और तेरे शरीर में शान्ति आई है, यह भी बहुत दुर्लभ है। एक बार सर्वथा त्याग करने के बाद ऐसे तुच्छ भोजन की इच्छा करने वाले की व्याधियाँ महामोह के प्रताप से क्षीण नहीं हो सकतीं। इस सम्बन्ध में सम्यक् प्रकार से विचार करने के पश्चात् यदि मन में यह पूर्ण प्रतीति हो कि इनका वास्तव में त्याग करना चाहिये तभी उत्तम पुरुषों को सर्वथा त्याग करना चाहिये । सद्बुद्धि का उत्तर सुनकर उसके मन में जरा घबराहट हई. इससे वह अच्छी तरह से निश्चय नहीं कर सका कि उसको क्या करना चाहिये । [३६६-४०१] । द्रमुक का शुभ संकल्प
३६. एक दिन उसने महाकल्याणक भोजन भरपेट खाने के बाद लीलाभाव से (हँसते हुए) थोड़ा सा कुभोजन भी खा लिया। उस समय अच्छा भोजन खाने से वह तृप्त हो गया था और सद्बुद्धि के पास होने से कुभोजन के गुण उसके चित्त पर अधिक असर करने लगे थे, जिससे वह विचार करने लगा-अहो ! मेरा यह तुच्छ भोजन अत्यन्त हेय, लज्जाजनक, मैल से भरा, घृणोत्पादक, कुरस वाला, निन्दनीय और सर्व दोषों का भाजन (स्थान) है। ऐसा जानते हुए भी मैं अभी तक उस कुभोजन पर अपने मोह का नाश नहीं कर सका। मुझे लगता है, इसका संपूर्ण त्याग किये बिना मुझे कभी भी पूर्ण सुख प्राप्त नहीं हो सकेगा । मैं इसका त्याग कर दू और मेरी पूर्व-लोलुपता के कारण बाद में उसे मैं फिर से याद करने लगतब भी वह दुःखों का घर हो सकता है, ऐसा सद्बुद्धि ने कहा है। यदि मैं इसका सर्वथा
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